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लेखक- सुशील कुमार भटनागर

मैं ने कार आगे बढ़ा दी. मेरे विचारों की शृंखला सक्रिय हो गई, ‘मैं गुनाहगार हूं इस के परिवार का. आरती, निखिल, उस के पिता रमानाथ और उस की मां गीता का. मेरी कायरता की ही सजा भुगत रहे हैं आज ये सब लोग. सच कहने से डर गया, समाज के सामने अपनी जबान खोलने से भयभीत हो गया, मैं ने रंजना की मौत का राज पुलिस के सामने खोल दिया होता तो आज मेरे मन पर इतना भारी बोझ न होता. मैं ने तबाह कर दिया इन निर्दोष, भोलेभाले और शरीफ लोगों को. इन के सर्वनाश का कारण मैं हूं.’

रात गहरा गई थी. ठंड भी बढ़ गई थी. सारा शहर नींद के आगोश में समाया हुआ था पर मेरी आंखों से तो नींद कोसों दूर जा चुकी थी. बाहर रहरह कर कुत्ते अपना बेसुरा राग अलाप रहे थे. आरती को मैं रंजन की देखरेख में स्वास्थ्य केंद्र छोड़ आया था.

मैं हौले से बिस्तर से उठा और खिड़की के पास आ कर खड़ा हो गया. पलट कर मैं ने रीमा पर एक नजर डाली, वह ख्वाबों की दुनिया में बेसुध खोई हुई थी. मैं ने टेबल पर पड़ी सिगरेट की डब्बी उठाई और सिगरेट सुलगा कर धुएं के छल्ले खिड़की से बाहर हवा में उछालने लगा. रहरह कर बस एक ही सवाल किसी भारी हथौड़े की भांति मेरे दिलोदिमाग पर पड़ रहा था, ‘क्यों चुप्पी साध रखी है मैं ने? क्यों नहीं मैं अपने समधी रमानाथजी और उन के परिवार को उन की बहू रंजना की दहेज हत्या के आरोप से मुक्त करा देता? मेरा शरीर भी अब साथ नहीं देता, अगर मुझे कुछ हो गया तो कब तक अपनी बहू की हत्या का कलंक अपने माथे पर लगाए जेल की सलाखों के पीछे सड़ते रहेंगे ये लोग? समाज की वर्जनाओं और मर्यादा का उल्लंघन तो मेरी बेटी रंजना ने किया है, फिर उस के किए की सजा ये निर्दोष क्यों भुगतें? वह तो मर कर चली गई पर जीतेजी मार गई इन सब को.’

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मैं अतीत में खो गया. उस रात रंजना की मां ने मेरे कान में फुसफुसा कर जो रहस्योद्घाटन किया था, उसे सुन कर चक्कर सा आ गया था मुझे. मेरी आंखों के आगे अंधेरा छा उठा था और फिर वहीं मैं अपना सिर पकड़ कर धम से बैठ गया था. रंजना को उलटियां हो रही थीं. रंजना गर्भवती थी. रंजना के गर्भ में उस की बड़ी बहन सीमा के पति नरेंद्र का बच्चा पल रहा था. यह सब कैसे हो गया अचानक? सीधासादा और भोला सा दिखने वाला मेरा दामाद नरेंद्र अपने जमीर से इतना नीचे गिर जाएगा, अपनी साली रंजना के साथ ही ऐसा कुकर्म कर बैठेगा वह, मैं ने तो कभी सपने में भी न सोचा था.

जीजासाली में अकसर मीठी छेड़छाड़ तो चलती रहती थी पर यह छेड़छाड़ ऐसा गुल खिलाएगी, मैं ने कभी कल्पना भी नहीं की थी. अभी 2 महीने पहले रंजना अपनी बड़ी बहन सीमा की डिलीवरी के समय महीना भर को वहां रह कर आई थी. शायद तब से ही रंजना और नरेंद्र के बीच यह दुश्चक्र शुरू हो गया था.

यह सब सोच कर खून खौल उठा था मेरा. एक झटके से उठ कर मैं सीधा रंजना के कमरे में गया था और एक जोरदार थप्पड़ उस के मुंह पर मारा था. रंजना की नाक से खून की धार फूट पड़ी थी. ‘कमीनी, करमजली, बेहया, शर्म नहीं आई तुझे. अपने बाप की, अपने खानदान की सब की नाक कटा दी तू ने. क्या इसीलिए जन्म लिया था तू ने हमारे घर में, कलंकिनी?’

मेरे सामने कभी मुंह नहीं खोलने वाली रंजना किसी शेरनी की भांति गरज उठी थी उस दिन, ‘मैं ने प्यार किया है नरेंद्र से. आप चाहें तो मुझे जान से मार दें. मेरी बोटीबोटी काट डालें पर मैं मर कर भी उन्हें नहीं भूल सकती. दीदी चाहे मुझे अपने घर में रखें या न रखें, मैं कहीं भी रह कर अपना गुजारा कर लूंगी पर उन्हें नहीं छोड़ सकती.’

‘अरे नालायक, सारा जहां छोड़ कर अपनी बहन का घर उजाड़ने की सूझी तुझे? सारे जहां के और लड़के मर गए थे क्या? इतना ही प्यार का भूत सवार था तेरे ऊपर तो कम से कम अपनी बहन का घर छोड़ देती. नरेंद्र के बजाय तू जिस के साथ कहती हम उसी के साथ तेरा ब्याह रचा देते, पर तू ने तो अपनी ही बहन के घर में आग लगा दी, नागिन बन कर अपनी ही बहन को डस लिया तू ने.’

मेरा रोमरोम गुस्से की आग में जल उठा था. कमरे में दरवाजे के पीछे रखा डंडा उठा कर मैं उस की ओर बढ़ा ही था कि रंजना की मां झूल गई थी मेरे हाथों से लिपट कर, ‘नहीं, मैं आप के पांव पड़ती हूं. मर जाएगी यह, कुछ तो सोचो रंजना के बापू. यह समय मारपिटाई का नहीं है, सोचने का है, संयम से काम लेने का है. मामला अपने ही घर का है, बात फैली तो दुनिया तमाशा देखेगी. सीमा का घर, उस की गृहस्थी उजड़ कर रह जाएगी. सीमा कभी माफ नहीं करेगी नरेंद्र को और बदनामी के मारे हमारे आगे तो जहर खा कर अपनी जान देने के सिवा और कोई रास्ता ही नहीं रह जाएगा. इस तरह तो गुस्से की आग दोनों घरों को जला डालेगी,’ उस की आंखों से आंसू ढुलक आए.

रंजना को उस के कमरे में ही रोता छोड़ और जोर से उस के सामने डंडा पटक कर मैं अपने कमरे में पांव पटकता आ गया. मेरे पीछे ही रीना भी अपने आंसू पोंछती चली आई. मुझे इस अप्रत्याशित, अमर्यादित और घिनौनी घटना के बाद कुछ सूझ ही नहीं रहा कि अब किया क्या जाए? रंजन उदयपुर में इंटर्नशिप कर रहा था उस वक्त, उसे इन सब बातों का कुछ पता न था.

‘आप कहें तो मैं भैया से जयपुर फोन पर बात करूं, वे डाक्टर हैं, रंजना का गर्भ तो गिराना ही पड़ेगा. भैया के यहां ही यह काम हो तो किसी को खबर भी नहीं होगी,’ रीना बोली थी.

‘ठीक है, तुम फोन पर बात कर लो,’ मैं ने तमक कर कहा. रीना ने शायद उचित ही सलाह दी थी. रीना अपने भाई को फोन मिलाने लगी थी और मैं बाहर आ कर सिगरेट सुलगाने लगा था. दूसरे दिन सुबह रंजना को ले कर हम जयपुर आ गए थे. रंजना गर्भ गिराने को कतई तैयार नहीं थी पर अपने मामाजी, मामीजी और हम सब के दबाव में आ कर ज्यादा प्रतिवाद नहीं कर सकी.

रंजना का गर्भ समापन हो जाने के बाद हम मातापिता उसे दुश्मन से लगने लगे थे. रंजना ने अब घर में बात करना भी बंद कर दिया था. उदास, गुमसुम रंजना को देख कर मन ही मन हम भी बेहद दुखी थे.

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कोई 3 माह बाद ही दौड़धूप कर मैं ने रंजना की शादी जयपुर में ही निखिल से तय कर दी थी. बहुत अच्छी ससुराल मिली थी रंजना को. बहुत छोटा और इज्जतदार परिवार था रंजना के ससुर रमानाथजी का. यह एक इत्तेफाक ही था कि रमानाथजी हमारे पैतृक गांव के निकले. मैं ने और रमानाथजी ने गांव में एकसाथ ही मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण की थी. उस के बाद उन के घर वाले गांव छोड़ कर शहर आ गए थे. उस के बाद रंजना के रिश्ते के सिलसिले में ही रमानाथजी से मुलाकात हुई थी और रमानाथजी ने अपने बेटे निखिल के लिए रंजना का रिश्ता तुरंत ही स्वीकार कर लिया था. रमानाथजी के निखिल और आरती, बस 2 ही बच्चे थे.

रमानाथजी सरकारी स्कूल में संस्कृत के लेक्चरर थे. अभी 4 वर्ष और थे उन के रिटायरमैंट में. निखिल कनिष्ठ लेखाकार के पद पर कलक्टरी में कार्यरत था और निखिल की बहन आरती अपने पति की दुर्घटना में मृत्यु के बाद से मायके में ही रह रही थी. रमानाथजी ने जैसेतैसे कोशिश कर के उसे विधवा कोटे में सरकारी स्कूल में तृतीय श्रेणी अध्यापिका के पद पर नियुक्त करवा दिया था.

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