स्वर्णिमा ने नजरें उठा कर राघव के चेहरे पर टिका दीं. कितना कुछ था उन निगाहों में पढ़ने के लिए, कितने भाव उतर आए थे. पर उन भावों को तब न पढ़ा, अब तो वह पढ़ना भी नहीं चाहती थी.
‘‘आती है राघव, क्यों नहीं आएगी भला, दोस्तों की याद. यादें तो इंसान की सब से बड़ी धरोहर होती हैं,’’ कह कर स्वर्णिमा उठ खड़ी हुई, ‘‘चलती हूं राघव, समय ने चाहा तो इसी तरह किसी पुस्तक मेले में फिर मुलाकात हो जाएगी.’’
‘‘स्वर्ण,’’ राघव भी उठ खड़ा हुआ, ‘‘कुछ कहना चाहता हूं तुम से,’’ उस के चेहरे पर निगाहें टिकाता हुआ वह बोला, ‘‘दोबारा ऐसी स्वर्ण से नहीं मिलना चाहता हूं मैं. कहां खो गई वह स्वर्णिमा जिस के होंठों से ही नहीं, चेहरे और आंखों के हावभावों से भी कविता बोलती थी. स्वर्ण, अगर पौधा गमले की सीमाएं तोड़ कर जड़ें जमीन की तरफ फैलाने की कोशिश नहीं करेगा, तो माली पौधे की बेचैनी कैसे समझेगा. परिंदा उड़ने के लिए पंख फैलाने की कोशिश नहीं करेगा, पंख नहीं फड़फड़ाएगा तो दूसरे तक उस की फड़फड़ाहट पहुंचेगी कैसे. कोशिश तो खुद ही करनी पड़ती है.
‘‘स्वर्ण, परिस्थितियों से हार मत मानो,’’ वह क्षणभर रुक कर फिर बोला, ‘‘मैं यह नहीं कहता कि जिंदगी को उलटपलट कर रख दो, अपनी गृहस्थी को आग लगा दो या अपने वैवाहिक जीवन को बरबाद कर दो पर अपने पंखों को विस्तार देने की कोशिश तो करो. कितनी बार रोक सकेगा कोई तुम को. अपनी जड़ों को फैलाने की कोशिश तो करो. बढ़ने दो टहनियों को, कितनी बार काटेगा माली. थक जाएगा वह भी. कोई साथ नहीं देता तो अकेले चलो स्वर्ण. तुम्हें चलते देख, साथ चलने वाला, साथ चलने लगेगा.’’
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