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‘‘मन का करने के लिए क्या नंगा रहना जरूरी है? कपड़ों में पूरीपूरी पीठ गायब होती है, टांगें खुली होती हैं. क्याक्या नंगा है, क्या आप नहीं देखतीं बूआ? कैसीकैसी नजरें नहीं पड़तीं…फिर दोष देना लड़कों को कि राह चलते छेड़ दिया.’’

‘‘ढकीछिपी लड़कियों पर क्या कोई बुरी नजर नहीं डालता?’’

‘‘डालता है बूआ बुरे लोग अगर घर में हैं तो लड़कियां वहां भी सुरक्षित नहीं. मैं मानता हूं इस बात को पर नंगे रहना तो खुला निमंत्रण है न. जिस निगाह को न उठनी हो वह भी हैरानी से उठ जाए… टीवी और फिल्मों की बात छोड़ दीजिए. उन्हें नंगा होने की कीमत मिलती है. वे कमा कर चली गईं. रह गई पीछे परछाईं जिस पर कोई हाथ नहीं डाल सकता और हमारी लड़कियां उन्हीं का अनुसरण करती घूमेंगी तो कहां तक बच पाएंगी, बताइए न? पिता और भाई तो कुत्ते बन गए न जो रखवाली करते फिरें.’’

‘‘अरे भाई क्या हो गया? कौन बन गया कुत्ता जो रखवाली करता फिर रहा है?’’ सहसा किसी ने टोका.

हम अपनी बहस में देख ही नहीं पाए कि फूफाजी पास खड़े हैं जो सामान से लदेफंदे हैं. बड़े स्नेही हैं फूफाजी. आज सुबह ही कह रहे थे कि शाम को पहलवान हलवाई की जलेबियां और समोसे खिलाएंगे. हाथ में वही सब था. बूआ के हाथों में सामान दे कर हाथमुंह धोने चले गए. वापस आए तो विषय पुन: छेड़ दिया, ‘‘क्या बात है अजय, किस वजह से परेशान हो? क्या मनु के फैशन की वजह से? देखो बेटा, हमारे समझाने से तो वह समझने वाली है नहीं. मनुष्य अपनी ही गलतियों से सीखता है. जब तक ठोकर न लगे कैसे पता चले आगे खड्ढा था. फैशन पर बहस करना बेमानी है बेटा. आज ऐसा युग आ गया है कि हर इंसान अपने ही मन की करना चाहता है. हर इंसान कहता है यह उस की जिंदगी है उसे उसी के ढंग से जीने दिया जाए. तो ठीक है भई जी लो अपनी जिंदगी.

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‘‘अकसर जो चीज घर के लोग या मांबाप नहीं सिखा पाते उसे दुनिया सिखा देती है. तरस तो मांबाप करेंगे न बाहर वालों को क्या पड़ी है. जब बाहर से धक्के खा कर आएंगे तभी पता चलेगा न घर वाले सही थे. मैं तो कहता हूं मांबाप को औलाद को पूरापूरा मौका देना चाहिए ठोकरें खाने का. तभी सबक पूरा होगा वरना कहते रहो दिनरात अपनी कथा. कौन सुनता है? अब बच्ची तो नहीं है न मनु. पढ़लिख गई है. अपना कमा रही है. हम क्यों टोकाटाकी करते रहें? अपना माथा भी खराब करें. क्या पता हम पिछड़ गए हों जो इसे समझ नहीं पा रहे…अब इस उम्र में हम तो बदल नहीं सकते न?’’

‘‘मैं तो पिछड़ा हुआ नहीं हूं न फूफाजी? मनु की ही पीढ़ी का हूं.’’

‘‘छोड़ो न बेटा क्यों खून जला रहे हो? मनु वही करेगी जो उस का मन कहेगा. तुम समोसा खाओ न. तुम्हारी बूआ चाय लाती होगी.

देखो बेटा, एक सीमा के बाद मांबाप को अपने हाथ खुले छोड़ देने चाहिए. हमारी बीत गई न. इन की भी बीत जाने दो. ऐसे या वैसे. जाने दो न…लो चाय लो.’’ फूफाजी का आचरण देख कर मैं चुप रह गया. बड़ी मस्ती से समोसे और जलेबियां खाने लगा. मनु उन के सामने ही मुझे हाथ हिलाती हुई निकल गई. उस का अजीबोगरीब पहनावा देख मेरा खून पुन: जलने लगा. मगर पिता हो कर जब फूफाजी कुछ नहीं कर पाए तो मैं उस का सिर तो नहीं न फोड़ सकता. मैं सोच रहा हूं अगर मनु मेरी अपनी बहन होती तो क्या कर लेता मैं? तब भी मैं मुंह से ही मना करता न? उसे पिंजरे में तो नहीं डाल पाता. भविष्य में अगर मेरी बेटी ही हो तो ज्यादा से ज्यादा क्या कर लूंगा मैं? शायद यही जो अभी फूफाजी कर रहे हैं. मुंहजोरी का भला क्या उत्तर हो सकता है.

बस भरोसा रखो अपने बच्चों पर कि वे कभी अपनी सीमा का अतिक्रमण न करें… विश्वास करो उन पर. उस के बाद यह बच्चों पर है कि वे अपनी परीक्षा में खरे उतर पाते हैं या नहीं. आप के भरोसे और विश्वास की कद्र कर पाते हैं या नहीं. तभी फूफाजी ने मेरा हाथ हिलाया, ‘‘समोसे ठंडे हो रहे हैं अजय…मनु अपनी सहेली के घर पार्टी में गई है. वहीं से खा कर आएगी…तुम खाओ न…’’ फूफाजी की मनुहार पर तो मेरा मन भीग रहा था पर मनु के प्रति उन का इतना खुला व्यवहार मेरी समझ में नहीं आ रहा था. यह उन का अपनी संतान पर विश्वास था या विश्वास करने की मजबूरी?

9 बजे के करीब मनु आई और सीधी अपने कमरे में चली गई. सुबह देर तक सोई रही.

‘‘क्या आज औफिस नहीं जाना है? बूआ ने नाश्ता लगा दिया है. चलो, उठो…तबीयत ठीक नहीं है क्या?’’ मैं पूछ आया, मगर बूआ और फूफाजी पूछने नहीं गए.

‘‘जब मरजी होगी उठ कर बना भी लेगी और खा भी. जब हमारी रोकटोक का कोई मोल नहीं है, तो हमारी देखभाल का भी क्या मतलब? प्यार को प्यार होता है और इज्जत को इज्जत. जब से इस ने मुंहजोरी पकड़ी है हम कुछ भी नहीं कहते हैं…इस उम्र में क्या हमें आराम नहीं चाहिए?

‘‘सुबह जल्दी उठ कर इस का नाश्ता बनाना मेरे बस का नहीं…नौकरी करनी है तो सुबह 6 बजे उठो, अपना नाश्ता बनाओ… नहीं बनता तो 8 तक सोना भी जरूरी नहीं. हमारी सेवा मत करो कम से कम अपना काम तो खुद करो,’’ बूआ ने बड़बड़ाते हुए अपना आक्रोश निकाला. तब मैं सहज ही समझ गया उन का भी दर्द. मस्त रहने की कोशिश कर रहे हैं दोनों, मगर भीतर से परेशान हैं. फूफाजी नाश्ता कर के औफिस चले गए और बूआ बड़े स्नेह से मुझ से और खाने का अनुरोध करती रहीं. ‘‘बूआ, वह भूखी है और मैं खा रहा हूं.’’

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‘‘तो क्यों भूखी है? क्या मजबूरी है? देर रात तक जागना जरूरी तो नहीं है न?’’

‘‘कल तो आप दोनों बड़े खुश लग रहे थे और…’’

‘‘खुश न रहें तो क्या करें, तुम्हीं बताओ मुझे? तुम्हारे फूफा ने एक दिन सख्ती से बात की तो जानते हो क्या कह रही थी? कह रही थी कि ज्यादा सख्ती की तो घर से हिस्सा मांग कर अलग रहने चली जाएगी… यह घर उस के दादाजी का है… बराबर की हकदार है… आजकल लड़कियां अपने अधिकारों के लिए बड़ी जागरूक हो गई हैं न, तो ले ले अपना अधिकार. मांबाप का प्यार भी जबरदस्ती ले ले मिलता है तो…’’

‘‘क्या?’’ मेरा मुंह खुला का खुला रह गया. मनु ने ऐसा किया… मेरी तो कल्पना से भी परे था ऐसा सोचना. लड़का हो कर कभी अपने पापा के आगे जबान नहीं चलाई हम दोनों भाइयों ने. कभी जरूरत ही नहीं पड़ी. मांबाप के साथ मर्यादित रिश्ता है हमारा और मनु ने लड़की हो कर अपना हिस्सा मांगा? अरे लड़कियां तो मांबाप के लिए एक भावनात्मक संबल होती हैं. लड़कों पर आरोप होता है कि शादी होते ही मांबाप को अंगूठा दिखा देते हैं और मनु ने लड़की हो कर ऐसा किया. बूआ की पीड़ा पर मैं भी आहत हो गया एकाएक. शायद इसीलिए पिछले दिनों पापा ने एक अच्छा रिश्ता सुझाया था तो बूआ ने साफ इनकार कर दिया था.

आगे पढ़ें- बूआ ईमानदार हैं जो अपनी संतान पर…

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