मैं रात को साहिबा आपा के पास जा बैठी... कहीं उन का मन मेरे लिए पसीजे. मगर वे लगीं उलटा मुझे समझाने, ‘‘वाकर तो अपनी खाला का बेटा है. गैर थोड़े ही है. पहली बीवी बेचारी मर गई थी... दूसरी भी तलाक के बाद चली गई... 38 का जवान जहान लड़का... क्यों न उस का घर बस जाए? शादी तो तुझे करनी ही है... कहीं तेरी शादी से मेरे बच्चों का जरा भला न हो जाए वह तुझे फूटी आंख नहीं सुहा रहा न?’’
‘‘अब आगे इन के बच्चे होंगे, हमारा घर छोटा पड़ेगा... इन का कारोबार जम जाए तो ये फ्लैट ले लें... यहां भी जगह बने. अब्बा फिर इस घर को बड़ा करवा कर किराए पर चढ़ाएं तो हमें भी कुछ आमदनी हो.’’
‘‘घर तोड़ेंगे क्या अब्बा... किस का कमरा?’’
‘‘किस का क्या बाहर वाला?’’
‘‘पर वह तो मेरा कमरा है?’’
‘‘तो तू कौन सी घर में रह जाएगी... वाकर के घर चली तो जाएगी ही न? जरा घर वालों का भी सोच चिलमन.’’
‘‘क्या मतलब? सुबह से ले कर रात तक सब की सेवा में लगी रहती हूं... और क्या सोचूं?’’
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‘‘कमाल है... तुझे बिना बुरके के आनेजाने, घूमनेफिरने की आजादी दी गई है... और क्या चाहिए तुझे?’’
हताश हो कर मैं आपा के कमरे से अपने कमरे में बिस्तर पर आ कर लेट गई... सच मैं क्या चाहती हूं? क्या चाहना चाहिए मुझे? एक औरत को खुद के बारे में कभी सोचना नहीं है, यही सीख है परिवार और समाज की?
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