लेखक- जीतेंद्र मोहन भटनागर

 पूर्वकथा : अभी तक आप ने पढ़ा कि प्रशोभा अपने पति राघव के साथ देवर माधव की शादी के लिए ससुराल पहुंचती है. ससुराल में शादी की तैयारियों में सब जुटे थे. प्रशोभा ने महसूस किया कि उस के जेठ ऊधव उस का कुछ खास ही खयाल रख रहे हैं. वे कोशिश कर रहे थे कि प्रशोभा उन से खुले. लेकिन प्रशोभा रिश्तों की मर्यादा जानती थी.

अविवाहित जेठ का शादी न करने का फैसला उसे अपनी ननद किरण से पता चलता है कि कंचन नाम की लड़की से पिता ने विवाह न होने दिया तो उन्होंने शादी न करने की जिद ठान ली.

किरण और प्रशोभा को ब्यूटीपार्लर जाना था तो सास कहती हैं कि ऊधव औफिस जाते वक्त तुम्हें वहां छोड़ देगा. ऊधव को जब पता चलता है कि प्रशोभा के साथ किरण भी जा रही है तो उस के चेहरे पर चमक गायब हो जाती है. क्या प्रशोभा जेठजी के जज्बातों को समझ रिश्तों को नया रूप देने की सोच रही थी? पढि़ए आगे :

पीले कलर की छोटी सी कार भाईसाहब ने मेन्टेन कर रखी थी. एक तरफ का दरवाजा खोल कर दीदी बैठ गईं. जेठजी ड्राइविंग सीट पर बैठ चुके थे. अपनी साइड का दरवाजा खोल कर मैं बैठने चली, तो देखा, ड्राईक्लीनर के यहां से लाए हुए बड़ेबड़े 3-4 पैकेट्स इस साइड रखे थे.

दीदी मेरे लिए जगह बनाने के इरादे से उन पैकेटों को अंदर ही अंदर अगली खाली सीट पर रखने चलीं तो जेठजी तेजी से बोले, ‘‘किरण, उन पैकेटों को डिस्टर्ब न करो और प्रशोभा, तुम मेरे पास वाली सीट पर बैठो.’’

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