रश्मि ने यश की मम्मी की पूरी बात धैर्य से सुनी फिर बिना मेरी ओर देखे ही उन को वचन दे दिया कि वह यथाशक्ति उन की मदद करेगी. रश्मि जानती थी कि अगर वह मेरी ओर देखती तो शांतिजी को मदद करने का वचन नहीं दे पाती क्योंकि मैं उसे ऐसा करने से जरूर रोकती.
मुझे विश्वास था कि उसे कुछ भी कहना व्यर्थ था. फिर सोचा, एक आखिरी कोशिश कर लूं, शायद सफलता मिल जाए.
तब प्रत्युत्तर में उस ने जो कुछ कहा, वह मेरे लिए अप्रत्याशित था.
‘‘वर्षा दीदी, मैं अपना दर्द सीने में दबा कर सिर्फ खुशियां बांटने में विश्वास करती हूं. इसीलिए अपने गमों से न तो कभी आप का परिचय करवाया, न ही किसी और का, पर आज ऐसा करना मेरे लिए जरूरी हो गया है.
‘‘दीदी, मैं ने बचपन और जवानी के चंद वर्षों का हर पल अभावों में गुजारा है. कभीकभी तो हमारे घर खाने को भी कुछ नहीं होता था. मैं भूखी रहती, पर कभी भी अपने ही पड़ोस में रहने वाले अपने सगे चाचा के घर जा कर रोटी का एक निवाला तक पाने की कोशिश नहीं की. धन के अभाव में मैं ने अपनी मां को तिलतिल मरते देखा है. मेरा इकलौता छोटा भाई इलाज के अभाव में मर गया. उस के हृदय में सुराख था.
‘‘ऐसी बात नहीं थी कि हम गरीब थे. पापामम्मी दोनों अध्यापक थे लेकिन पापा अपने वेतन का अधिकतर हिस्सा जरूरतमंदों की मदद में खर्च करते तब मां के सामने घर खर्च चलाने में कितनी दिक्कतें आती होंगी.’’
मैं सांस रोके उस की आपबीती सुनती रही.