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रश्मि की बात सुन कर सुनीता और अनामिका तो मंदमंद मुसकराने लगीं. पर ताईजी और बुआजी नाराज हो गईं.

रात को किसी की आंखों में नींद नहीं थीं. एक तरफ पिता को खोने का दुख और बेचैनी थी तो दूसरी तरफ तमाम कर्मकांडों से निबटने की व्यवस्था की चिंता हो रही थी. 13 दिन तक औफिस और स्कूल जाना भी वर्जित था.

सब ने बैठ का खर्चों का बजट बनाया तो कुल खर्चे लाख रुपए के ऊपर जाता देख सब के चेहरे पर चिंता की लकीरें उभर आईं.

सुनीता के पति ने सब को धैर्य बंधाते हुए कहा, ‘‘अब जो करना है सो करना ही है चाहे जैसे भी. मेरा एक फिक्स डिपौजिट है उसे मैं तोड़ दूंगा तो पैसों का इंतजाम हो जाएगा. उस की चिंता न करो पर यह सोचो कि अब यह घट कहां बांधेगे?’’ छोटे भाई ने हैरानी से कहा, ‘‘भैया, जरूरी है यह सब करना? आप भी जानते हैं मैं भी जानता हूं कि यह सब बेसिरपैर की बातें हैं.’’

‘‘छोटे, कुछ कार्य ऐसे होते हैं जिसे यह जानते हुए भी कि ये अर्थहीन हैं हमें करना ही पड़ता है. ये कर्मकांड जैसी अनेक मान्यताएं उन में से ही एक हैं.’’

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‘‘यही तो हमारी त्रासदी है भाई कि हम सब पढ़ेलिखे लोग अच्छी तरह समझ तो चुके हैं कि ये कर्मकांड, मृत्युभोज और ब्राह्मणों का दानदक्षिणा सब कुछ छलावा है. फुजूल की बातें है पर फिर भी हम इन्हें ढोए जा रहहे हैं, सिर्फ इसलिए कि लोग हम पर उंगली न उठा सकें.’’ इस बार रामाशीषजी के दामाद ने अपने मन की बात कही.

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