वैशाली अपने जीवन से बहुत सुखी व संतुष्ट थी. घर में पति, 2 प्यारे से बच्चे, धनदौलत, ऐशोआराम और सामाजिक जीवन में मानसम्मान. और क्या चाहिए था. उस दिन भी वह सुखसागर में डूबी आंखें बंद किए बैठी थी कि उस की प्रिय सहेली वसुधा ने आ कर ऐसा बम सा फोड़ा कि वैशाली हक्काबक्का रह गई. वह क्या कह रही थी उसे समझ में नहीं आ रहा था या समझने के बाद भी उस पर भरोसा करने का मन नहीं हो रहा था.
‘‘हो सकता है वसुधा, तुम्हें कोई गलतफहमी हुई हो. सुधीर ऐसा कैसे कर सकते हैं? मैं उन के बच्चों की मां हूं और उन्हें कामयाबी की बुलंदियों पर पहुंचाने में मदद करने वाली हमसफर हूं.’’ वैशाली ने विश्वास न करने वाले अंदाज में वसुधा की ओर देख कर कहा.
‘‘इतनी बड़ी बात बिना विश्वास के मैं कैसे कह सकती हूं. यदि मुझे यह बात किसी और ने बताई होती तो विश्वास नहीं होता पर यह सब मैं ने खुद अपनी आंखों से देखा है और एक नहीं, कई बार. तुम हो कि न जाने कौन सी दुनिया में खोई रहती हो,’’ वसुधा की आंखों में गहरा दुख और चिंता थी.
वैशाली तड़प उठी थी, ‘‘लेकिन सुधीर तो मेरे हैं, सिर्फ मेरे. मुझ से पूछे बिना तो वह एक कदम नहीं उठाते फिर इतना बड़ा कदम कैसे? नहीं, लोग जलते हैं मुझ से, सुधीर से और हमारी कामयाबी से. यह शायद उन्हीं की कोई चाल होगी.’’
‘‘नहीं, चालवाल कुछ नहीं. बस इतना समझ लो, मर्द का प्यार आखिरी नहीं होता,’’ वसुधा ने कहा.