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फिर सप्लाई का पानी पीने से उन का पेट खराब होने लगा तो जब भी सत्यम या उस का परिवार आता तो मैं बाजार से पानी की बोतल मंगा कर रखने लगी, लेकिन लाइट चली जाती तो उन्हें इनवर्टर की कमी खलती…गरमी में ए.सी. व कूलर की कमी अखरती, तो सर्दी में एक अच्छे ब्लोवर की कमी…मतलब कि कमी ही कमी…नाश्ते में सबकुछ चाहिए. पर सत्यम व नीमा कभी यह नहीं सोचते कि जिन सुविधाओं के बिना उन्हें दोचार दिन भी बिताने भारी पड़ जाते हैं उन्हीं सुविधाओं के बिना मातापिता ने पूरी जिंदगी कैसे गुजारी होगी और अब बुढ़ापा कैसे गुजार रहे होंगे. सत्यम पर क्षमता से अधिक खर्च न कर क्या वे अपने लिए छोटीछोटी मूलभूत सुविधाएं नहीं जुटा सकते थे? पर उस समय तो लगता था कि हमारा बेटा लायक बन जाएगा तो हमें क्या कमी है. सौ सुविधाएं जुटा देगा वह हमारे लिए.

सत्यम कभी नहीं सोचता था कि वह जूस पी रहा है तो मातापिता को बुढ़ापे में एक कप दूध भी है या नहीं…जरूरी दवाओं के लिए पैसे हैं या नहीं. उन का तो यही एहसान बड़ा था कि वे दोनों इतने व्यस्त रहते हैं…इस के बावजूद जब छुट्टी मिलती है, तो वे उन के पास चले आते हैं, नहीं तो किसी अच्छी जगह घूमने भी जा सकते थे.

सत्यम का परिवार जब भी आता, उन को सुविधाएं देने के चक्कर में मैं अपना महीनों का बजट बिगाड़ देती. उन के जाते ही फिर उन के अगले दौरे के लिए संचय करना शुरू कर देती.

सौरभ की जानकारी में जब यदाकदा ये बातें आतीं तो उन का पारा चढ़ जाता पर मां होने के नाते मैं उन को शांत कर देती. लगभग 5 साल पहले सत्यम मुंबई में नियुक्त था. उसी दौरान सौरभ को हार्ट अटैक पड़ा. डाक्टर ने एंजियोग्राफी कराने के लिए कहा. पूरी प्रक्रिया व इलाज पर आने वाले खर्चे को सुन कर मैं सन्न रह गई. ऐसे समय तो सत्यम जरूर आगे बढ़ कर अपने पिता का इलाज कराएगा. यह सोच कर मैं ने सत्यम को फोन किया. मेरे साथ तो कोई था भी नहीं, जो भागदौड़ कर पाता. खर्चे की तो बात ही अलग थी, लेकिन सत्यम की बात सुन कर मैं हक्कीबक्की रह गई थी :

‘मम्मी, एक दूसरी कंपनी में मुझे बाहर जाने का मौका मिल रहा है, इस समय तो मैं बिलकुल भी नहीं आ सकता. मुझे जल्दी ही अमेरिका जाना पड़ेगा. रही खर्चे की बात, तो थोड़ाबहुत तो भेज सकता हूं पर इतना रुपया मेरे पास कहां.’

बेटे की आधी बात सुन कर ही मैं ने फोन रख दिया. अस्पताल में जीवनमृत्यु के बीच झूल रहे उस इनसान के जीवन के प्रति सत्यम के हृदय में जरा भी मोह नहीं जो उस का जन्मदाता है, जो जीवन भर नौकरी कर के अपने लिए मूलभूत सुविधाएं भी नहीं जुटा पाया, इसलिए कि बेटे के सफलता की तरफ बढ़ते कदमों पर रंचमात्र भी रुकावट न आए. आज उसी पिता के जीवन के लिए कोई चिंता नहीं. जिए तो जिए और मरे तो मरे…न आवाज में कंपन और न यह चिंता कि कहीं पिता दुनिया से न चले जाएं.

जिस बेटे को उन के जीवन का मोह नहीं, उस से रुपएपैसे की सहायता भी क्यों लेनी है…लेकिन इलाज के लिए रुपए तो चाहिए ही थे. सौरभ ने एक छोटा सा प्लाट सस्ते दामों में शहर के बाहर खरीदा हुआ था. अब वह अच्छी कीमत में बिक सकता था, लेकिन सौरभ यह सोच कर कि सत्यम उस पर अच्छा सा सुख- सुविधापूर्ण घर बनाएगा, नहीं बेचना चाह रहे थे. फिर उस समय उन्होंने अपने एक परिचित से कहा कि वह उस जमीन को खरीद ले और उसे इस समय रुपए दे दे. उस परिचित ने भी जमीन सस्ती मिलती देख उन्हें रुपए दे दिए. उस समय उन्हें लगा, बेटे के बजाय जमीन खरीदना शायद ज्यादा हितकर रहा, जो इस मुसीबत में उन के काम आई.

इधर सौरभ के आपरेशन का दिन फिक्स हुआ, उधर सत्यम अमेरिका के लिए उड़ गया. वहां से पिता का हालचाल जानने के लिए फोन आया तो उस की आवाज में इस बात का कोई मलाल नहीं था कि वह अपने पिता के लिए कुछ नहीं कर पाया. तब से 5 साल हो गए. सत्यम और उन का संपर्क लगभग खत्म सा हो गया था. उस के फोन यदाकदा ही आते जो नितांत औपचारिक होते.

और अब जब मंदी की चपेट में आ कर सत्यम की नौकरी छूट गई तो वह उन के पास आ रहा है. मुसीबत में इस असुविधापूर्ण, गंदे, छोटे से फ्लैट की याद उसे अमेरिका जैसे शानोशौकत वाले देश में भी आखिर आ ही गई, जहां वह लौट कर जा सकता है. अब कैसे रहेंगे सत्यम, नीमा व उन के बच्चे यहां…कैसे बनाएगी नीमा इस किचन में चाय…जहां पानी जब आए तब काम करना पड़ता है.

मैं यही सोच रही थी. न जाने कब तक छत पर नजरें गड़ाए मैं अपने विचारों के आरोहअवरोह में चढ़तीउतरती रही और सोचतेसोचते कब नींद के आगोश में चली गई, पता ही नहीं चला.

सुबह नींद खुली तो सूरज छत पर चढ़ आया था. सौरभ बेखबर सो रहे थे. मैं ने उन का माथा छू कर देखा और इत्मीनान से मुसकरा दी. जब से सौरभ को दिल का दौरा पड़ा है तब से उन की तरफ से मन में अनजाना सा डर समाया रहता है कि कहीं सौरभ मुझे छोड़ कर चुपचाप चले न जाएं. क्या होगा मेरा? मैं सौरभ के बिना नहीं जी सकती और जीऊंगी भी तो किस के सहारे.

मैं हाथमुंह धो कर चाय बना कर ले आई. सौरभ को जगाया और दोनों मिल कर चाय पीने लगे. जिंदगी की सांझ में कैसे पतिपत्नी दोनों अकेले रह जाते हैं, यही तो समय का चक्कर है. इसी जगह पर कभी हमारे मातापिता थे, अब हम हैं और कल हमारी संतान होगी. सीमित होते परिवार, कम होते बच्चे…पीढ़ी दर पीढ़ी अकेलेपन को बढ़ाए दे रही है. हर नई पीढ़ी, पिछली पीढ़ी से ज्यादा और जल्दी अकेली हो रही है, क्योंकि बच्चे पढ़ाई- लिखाई के कारण घर से जल्दी दूर चले जाते हैं. पर इस का एहसास युवावस्था में नहीं होता.

मन में बेटे के परिवार के आने का कोई उत्साह नहीं था. फिर भी न चाहते हुए भी, उन का कमरा ठीक करने लगी. बच्चे भी आ रहे हैं…कैसे रहेंगे, कितने दिन रहेंगे.. मैं आगे का कुछ भी सोचना नहीं चाहती थी. हां, इतना पक्का था कि 6 लोगों का खर्च सौरभ की छोटी सी पेंशन से नहीं चल सकता था…तब क्या होगा.

आगे पढ़ें- रात को सत्यम का फोन आया कि वह…

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