लेखिका- नमिता दुबे
अपनेअंदर की घुटन को मन में दबा कर मानसी छत पर चली आई. बाहर की ताजा हवा में सब से दूर, वह फिर से सामान्य रूप से सांस ले पा रही थी. उस ने मन ही मन प्रार्थना की कि उस के व्यवहार की विचित्रता पर किसी का ध्यान न जाए. यह लगभग रोज का नाटक हो गया था, विभा आती और सारा परिवार उस के इर्दगिर्द इकट्ठा हो जाता. इस दौरान मानसी बेहद मानसिक यातना से गुजरती थी. ऐसा नहीं कि उसे अपनी छोटी बहन से प्यार नहीं था. बहुत प्यार था उसे विभा से पर परिस्थिति ही कुछ ऐसी हो गई थी कि अपनी बहन को देखते ही उस का मन खिन्न हो उठता. ‘यह फैसला भी तो तुम्हारा ही था. अब उस पर पछताने से क्या होगा?’’ उस के मन ने उसे दुत्कारा और उस की आंखों के सामने वह शाम पुन: सजीव हो उठी, जो इन घटनाओं की गवाह थीं.
एमए के प्रथम वर्ष की परीक्षा सफलतापूर्वक उत्तीर्ण करने के उपरांत बड़ी उमंगों के साथ घर आई थी छुट्टियां मनाने. सिविल सर्विस या लैक्चररशिप के बीच जू झ रही थी. यों तो उस का मन बचपन से ही सिविल सर्विस में जाने का था, पर जैसेजैसे उस की निकटता साहित्य से बढ़ी और बीए के बाद एक अस्थायी शिक्षक के रूप में उस ने जिस सुख का अनुभव किया था, उस के परिणामस्वरूप उस का झुकाव लैक्चररशिप की ओर अधिक होता गया. बच्चों को किसी सुंदर पंक्ति से परिचित कराने के साथसाथ उन में किसी जीवनमूल्य को निविष्ट करना उसे एक अनूठे रोमांच से भर देता था. घर आई थी तो सोचा था परिवार वालों का परामर्श लेगी पर उसे आए एक दिन भी कहां बीता था कि उस के सामने विभोर के रिश्ते का प्रस्ताव रख दिया गया. प्रस्ताव क्या था, आदेश ही तो था. मम्मी खुश होहो कर तसवीरें दिखा रही थीं और दादी जन्मपत्री के मिलान की व्याख्या कर रही थीं.