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लेखिका- रत्ना पांडे

वसुंधरा और बसंती बचपन की पक्की सहेलियां थीं. साथ खेलती, साथ पढ़ती, साथसाथ ही स्कूल जाती थीं. एकदूसरे की पड़ोसिन होने की वजह से काफी वक़्त साथ में गुजारती थीं. दोनों के विचार अलग होने के बावजूद भी दोनों में बेहद गहरी दोस्ती थी. साथ चलतेचलते पता ही नहीं चला, कब बड़ी हो गईं.

दोनों की दोस्ती पूरे महल्ले में मशहूर थी. सब लोगों ने बचपन से उन्हें साथ में देखा था. शायद, प्रकृति भी उन्हें अलग नहीं करना चाहती थी. वसुंधरा और बसंती की शादी एक ही शहर में तय हो गई, दोनों के घर भी कुछ ही दूरी पर थे.

शादी के बाद भी दोनों का मिलनाजुलना, कम ही सही, बंद नहीं हुआ. दोनों अपनेअपने परिवारों में खुश थीं और अपनी ज़िम्मेदारियां निभा रही थीं. वक़्त कभी कहां रुकता है, आगे बढ़ता ही जा रहा था. वसुंधरा और बसंती अब बुजुर्गों की श्रेणी में आ चुकी थीं.

वसुंधरा का एक बेटा था अनिल और बहू अंजलि. वसुंधरा की बहू अंजलि नौकरी करती थी. बेटेबहू के औफ़िस जाने के बाद वसुंधरा अकेली हो जाती थी क्योंकि उस के पति का निधन हो चुका था. उन की पोती गरिमा और पोता वरुण पंचगनी के होस्टल में रह कर पढ़ाई कर रहे थे. दोनों को शुरू से ही अच्छे स्कूल में पढ़ाई करने के लिए वहां भेज दिया गया था. वसुंधरा का स्वास्थ्य भी धीरेधीरे खराब हो रहा था.

बसंती का भी एक ही बेटा था सचिन और बहू कामिनी. बसंती ने कामिनी को कभी नौकरी नहीं करने दी. कई बार कामिनी ने उस से अनुमति मांगी, लेकिन बसंती का निर्णय अटल ही रहा.

कामिनी अधिकतर सचिन से कहती रहती थी, “सचिन यदि मैं भी नौकरी कर लूं तो हमारे बच्चे भी बड़े स्कूल में पढ़ सकते हैं. हम और अच्छी ज़िंदगी जी सकते हैं. बच्चों का भविष्य बेहतर बना सकते हैं.”

किंतु सचिन अपनी मां की वजह से हर बार कामिनी को न में जवाब देता था. इस वजह से कामिनी और सचिन में कई बार झगड़ा भी हो जाता था.

बसंती जब भी वसुंधरा से मिलने उस के घर आती, उसे अकेला देख कर दुखी हो जाती थी. वह हमेशा उस से कहती, ‘वसुंधरा, कितनी बार तुझे समझाया, अपनी बहू को नौकरी मत करने दे. नौकरी करेगी वह और घर का कामकाज, जवाबदारी सब तेरे ऊपर आ जाएगा. लेकिन तू है कि सुनती ही नहीं. हमारी उम्र हो रही है, कभी घुटने दुखते हैं, कभी कमर. कब तक तू अकेली पिसती रहेगी ऐसे ही.’

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‘बसंती, ऐसा नहीं है…’, वसुंधरा कुछ कहने की कोशिश करती, उस से पहले ही बसंती उसे चुप कर देती थी यह कह कर कि ‘मुझे तेरी कोई दलील नहीं सुननी है.

देख, मैं कैसे शान से रहती हूं, दिनभर बहू घर में रहती है. मुझे कोई जवाबदारी नहीं उठानी पड़ती. बच्चे भी स्कूल से वापस आ कर घर में रहते हैं. अभी छोटे हैं, दिनभर उन की हलचलमस्ती देख कर समय कैसे कट जाता है, पता ही नहीं चलता.’

वसुंधरा हमेशा बसंती की बातें एक कान से सुन दूसरे से निकाल दिया करती थी. जब कभी वह बसंती के सामने कुछ सफाई देने की कोशिश करती तो बसंती एक न सुनती थी. अंजलि के साथ बसंती का व्यवहार उखड़ाउखड़ा ही रहता था. अंजलि उस के इस स्वभाव को जानती थी और हमेशा उस के पांव छू कर ही उस से मिलती थी.

अंजलि और कामिनी भी अकसर मिल जाया करती थीं. वसुंधरा और बसंती की दोस्ती के कारण दोनों परिवारों के घनिष्ठ पारिवारिक संबंध थे. कामिनी के दिल की बात अंजलि जानती थी. वह जानती थी कि कामिनी ख़ुश नहीं है. वह जीवन में आगे बढ़ना चाहती है, अपने पति के कंधे से कंधा मिलाकर काम करना चाहती है. किंतु बसंती की ज़िद के आगे उस के सपने, सपने ही रह जाते हैं. अंजलि हमेशा उसे समझाती कि वक़्त जरूर बदलेगा तुम भी जीवन में आगे बढ़ पाओगी. किंतु कामिनी जानती थी, ये सब मन को समझाने की बातें हैं.

समय आगे बढ़ता रहा और वसुंधरा ज्यादा बीमार रहने लगी. अंजलि और अनिल ने अपनी मां की देखभाल करने के लिए एक युवती सरोज को रख लिया. वह हर रोज़ 10 बजे आती और शाम 7 बजे तक रुकती थी. अंजलि 10 बजे अपने औफ़िस के लिए निकलती थी जबकि अनिल 9 बजे ही चला जाता था. अंजलि के जाने के आधे घंटे के बाद सरोज आ जाती थी. इतनी देर ही वसुंधरा को अकेले रहना पड़ता था.

वसुंधरा के घुटने काफी खराब हो चुके थे. उसे चलनेफिरने में बहुत तकलीफ़ होती थी. साथ ही ब्लडप्रैशर भी बहुत कम हो जाता था. अंजलि उस की दवाइयों का हमेशा खयाल रखती थी और उसे ख़ुश रखने की कोशिश भी करती थी.

सोमवार का दिन था, अंजलि के जाने के बाद अचानक ही वसुंधरा की तबीयत ज़्यादा बिगड़ गई और वह दर्द से अपने बिस्तर पर लेटेलेटे कराह रही थी. वह सरोज का रास्ता देख रही थी कि सरोज आ जाए तो अच्छा रहेगा. किंतु आज सरोज भी वक़्त पर ना आ पाई. वसुंधरा का पेटदर्द काफी बढ़ रहा था. तभी उस ने सोचा धीरेधीरे बाथरूम जा कर आती हूं, शायद तब दर्द से राहत मिले.

ऐसा सोच कर वह पलंग से उठने लगी, किंतु ब्लडप्रैशर कम हो जाने की वजह से उसे चक्कर आ गया और वह कराहते हुए गिर पड़ी. फिर वह वापस उठ न पाई. वह नीचे पड़ेपड़े कराह रही थी. उसी समय बसंती, वसुंधरा से मिलने आई और बाहर ताला लगा देख कर वह सोच में पड़ गई कि वसुंधरा कहां गई होगी. तभी उसे अंदर से कराहने की आवाज़ आई. बसंती ने पास जा कर सुना, बोल पड़ी, “अरे, यह तो वसुंधरा की आवाज़ है.”

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वह घबरा गई और जोर से बोली, “वसुंधरा, क्या हुआ, बाहर से ताला लगा कर तुम्हें अंदर क्यों बंद कर दिया गया है? तुम डरो नहीं, मैं कुछ करती हूं.”

बसंती को समझ नहीं आ रहा था कि क्या करे, पड़ोसियों को बुलाती हूं, ऐसा सोच कर वह जैसे ही पलटी, उस ने देखा, सरोज तेजी से आ रही थी. सरोज को देखते ही बसंती का पारा सातवें आसमान पर था.

आगे पढ़ें- बसंती ने गुस्से से लाल हुई आंखों से सरोज को देखा….

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