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उन्होंने कभी अगर बच्चों को सुधारने के उद्देश्य के कुछ नसीहत देनी चाही तो पत्नी बीच में आ जाती. कहती, ‘आप क्यों बेकार में बच्चों के पीछे अपना दिमाग खराब कर रहे हैं. मैं हूं न उन्हें संभालने के लिए. अभी छोटे हैं, धीरेधीरे समझ जाएंगे. आप अपने काम पर ध्यान दीजिए, बस.’

अपना काम, यानी पैसे कमाना और परिवार के ऊपर खर्च करना. वह भी अपनी मरजी से नहीं, पत्नी की मरजी से. इस का मतलब हुआ पति का परिवार को चलाने में केवल पैसे का योगदान होता है. उसे किस प्रकार चलाना है, बच्चों को किस प्रकार पालनापोसना है और उन्हें कैसी शिक्षा देनी है, यह केवल पत्नी का काम है. और अगर पत्नी मूर्ख हो तो...तब बच्चों का भविष्य किस के भरोसे? वे मन मसोस कर रह जाते.

पत्नी का कहना था कि बच्चे धीरेधीरे समझ जाएंगे, परंतु बच्चे कभी नहीं समझे. वे बड़े हो गए थे परंतु मां के अत्यधिक लाड़प्यार और फुजूलखर्ची से उन में बचपन से ही बुरी लतें पड़ती गईं. उन के सामने ही उन के मना करने के बावजूद पत्नी बच्चों को बिना जरूरत के ढेर सारे पैसे देती रहती थी. जब किसी नासमझ लड़के के पास फालतू के पैसे आएंगे तो वह कहां खर्च करेगा. शिक्षा प्राप्त कर रहे लड़कों की ऐसी कोई आवश्यकताएं नहीं होतीं जहां वे पैसे का इस्तेमाल सही तरीके से कर सकें. लिहाजा, उन के बच्चों के मन में बेवजह बड़प्पन का भाव घर करता गया और वे दिखावे की आदत के शिकार हो गए. घर से मिलने वाला पैसा वे लड़कियों के ऊपर होटलों व रेस्तराओं में खर्च करते और दूसरे दिन फिर हाथ फैलाए मां के पास खड़े हो जाते.

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