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रामचंद्र भी जीवट का आदमी था. न कोई घिन न अनिच्छा. पूरी लगन, निष्ठा और निस्वार्थ भाव से उन का मलमूत्र उठा कर फेंकने जाता. बाबू साहब ने उसे कई बार कहा कि वह कोई मेहतर बुला लिया करे. सुबहशाम आ कर गंदगी साफ कर दिया करेगा, पर रामचंद्र ने बाबू साहब की बातों को अनसुना कर दिया और खुद ही उन का मलमूत्र साफ करता रहा. उन्हें नहलाताधुलाता और साफसुथरे कपड़े पहनाता. उस की बीवी उन के गंदे कपड़े धोती, उन के लिए खाना बनाती. रामचंद्र खुद स्नान करने के बाद उन्हें अपने हाथों से खाना खिलाता. अपने सगे बहूबेटे क्या उन की इस तरह सेवा करते? शायद नहीं...कर भी नहीं सकते थे. बाबू साहब मन ही मन सोचते.

बाबू साहब उदास मन लेटेलेटे जीवन की सार्थकता पर विचार करते. मनुष्य क्यों लंबे जीवन की आकांक्षा करता है, क्यों वह केवल बेटों की कामना करता है? बेटे क्या सचमुच मनुष्य को कोई सुख प्रदान करते हैं? उन के अपने बेटे अपने जीवन में व्यस्त और सुखी हैं. अपने जन्मदाता की तरफ से निर्लिप्त हो कर अपना जीवन व्यतीत कर रहे हैं, जैसे अपने पिता से उन्हें कुछ लेनादेना नहीं है.

और एक तरफ रामचंद्र है, उस की बीवी है. इन दोनों से उन का क्या रिश्ता है? उन्हें नौकर के तौर पर ही तो रखा था. परंतु क्या वे नौकर से बढ़ कर नहीं हैं? वे तो उन के अपने सगे बेटों से भी बढ़ कर हैं. बेटेबहू अगर साथ होते, तब भी उन का मलमूत्र नहीं छूते.

जब से वे पूरी तरह अशक्त हुए हैं, रामचंद्र अपने घर नहीं जाता. अपनी बीवी के साथ बाबू साहब के मकान में ही रहता है. उन्होंने ही उस से कहा था कि रात को पता नहीं कब क्या जरूरत पड़ जाए? वह भी मान गया. घर में उस के बच्चे अपनी दादी के साथ रहते थे. दोनों पतिपत्नी दिनरात बाबू साहब की सेवा में लगे रहते थे.

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