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लेखिका- जागृति भागवत

‘‘न कोई भाई न बहन, इकलौता हूं. इसीलिए सब को बहुत उम्मीदें हैं मुझ से.’’ सिद्धार्थ की आवाज में काफी उदासी थी. जानकी ने संवाद को आगे बढ़ाते हुए पूछा, ‘‘और आप उन की उम्मीदें पूरी नहीं कर रहे हैं? आप उन की इकलौती संतान हैं, आप से उम्मीदें नहीं होंगी तो किस से होंगी. आप के लिए जमाजमाया बिजनैस है और आप उस के मुताबिक ही क्वालिफाइड भी हैं, मतलब बिना किसी संघर्ष के आप वह सब पा सकते हैं जिसे पाने के लिए लोगों की आधी जिंदगी निकल जाती है.’’ ये सब कह कर तो जानकी ने जैसे सिद्धार्थ की दुखती रग पर हाथ रख दिया हो. वह बिफर पड़ा, ‘‘ये सब बातें देखनेसुनने में अच्छी लगती हैं मैम, जिस पर बीतती है वह ही इस का दर्द जानता है. अगर पिता डाक्टर हैं तो बेटे को डाक्टर ही बनना होगा ताकि पिता का हौस्पिटल आगे चल सके. पिता वकील हैं तो बेटा भी वकील ही बने ताकि पिता की वकालत आगे बढ़ सके, ऐसा क्यों? टीचर का बेटा टीचर बने, यह जरूरी नहीं, बैंकर का बेटा बैंकर बने, यह भी जरूरी नहीं फिर ये बिजनैस कम्युनिटी में पैदा हुए बच्चों की सजा जैसी है कि उन्हें अपनी चौइस से अपना प्रोफैशन चुनने का अधिकार नहीं है, अपना कैरियर बनाने का अधिकार नहीं है. मैं ने तो नहीं कहा था अपने पिता से कि वे बिजनैस करें, फिर वे मेरी रुचि में इंटरफेयर क्यों करें?’’

जानकी सोच भी नहीं सकती थी कि ऐसे फ्लर्ट से दिखने वाले नौजवान के अंदर इतनी आग होगी. जानकी ने बहस के लहजे में उस से कहा, ‘‘जिसे आप सजा कह रहे हैं, वह असल में आप के लिए सजा है, जब तक इंसान के सिर पर छत और थाली में खाना सजा मिलता है, तभी तक उसे कैरियर में चौइस और रुचि जैसे शब्द सुहाते हैं. जब बेसिक नीड्स भी पूरी नहीं होती है तब जो काम मिले, इंसान करने को तैयार होता है. कभी उन के बारे में भी सोच कर देखें, तब आप को आप से ज्यादा खुश कोई नहीं लगेगा.’’ ‘‘मैम, अगर आप मेरी जगह होतीं तो मेरी पीड़ा समझ पातीं, आप के पेरैंट्स ने कभी आप की लाइफ में इतना इंटरफेयर नहीं किया होगा, तभी आप इतनी बड़ीबड़ी बातें कर पा रही हैं.’’ सिद्धार्थ की आवाज में थोड़ा रूखापन था. जवाब में जानकी ने कहा, ‘‘इंटरफेयर तो तब करते न जब वे मेरे पास होते.’’

यह सुनते ही सिद्धार्थ के चेहरे के भाव ही बदल गए. वह क्या पूछे और कैसे पूछे, समझ नहीं पा रहा था. फिर आहिस्ता से पूछा, ‘‘सौरी मैम, कोई दुर्घटना हो गई थी?’’ ‘‘नहीं जानती,’’ जानकी की आवाज ने उसे व्याकुल कर दिया. ‘‘नहीं जानती, मतलब?’’ सिद्धार्थ ने आश्चर्य से पूछा. इस पर जानकी ने बिना किसी भूमिका के बताया, ‘‘नहीं जानती, मतलब मैं नहीं जानती कि वे लोग अब जिंदा हैं या नहीं. मैं ने तो उन्हें कभी देखा भी नहीं है. जब मेरी उम्र लगभग 4-5 दिन थी तभी उन लोगों ने या अकेली मेरी मां ने मुझे इंदौर के एक अनाथालय ‘वात्सल्य’ के बाहर एक चादर में लपेट कर धरती मां की गोद में छोड़ दिया, जाने क्या वजह थी. तब से ‘वात्सल्य’ ही मेरा घर है और उसे चलाने वाली मानसी चाची ही मेरी मां हैं. मैं धरती की गोद से आई थी, इसलिए मानसी चाची ने मेरा नाम जानकी रखा. न मैं अपने मातापिता को जानती हूं और न ही मुझे उन से कोई लगाव है.

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‘‘मैं जानती हूं कि मातापिता के साथ रहना निसंदेह बहुत अच्छा होता होगा लेकिन मैं उस सुख की कल्पना भी नहीं कर सकती. जिद क्या होती है, चाहतें क्या होती हैं, बचपन क्या होता है, ये सब सिर्फ पढ़ा है. मानसी चाची ने हम सब को भरपूर दुलार दिया क्योंकि स्नेह को पैसों से खरीदने की जरूरत नहीं होती. हमारी मांगें पूरी करना, हमारा जन्मदिन मनाना जैसी इच्छाएं ‘वात्सल्य’ के लिए फुजूलखर्ची थीं. मानसी चाची ने हमें कभी किसी चीज के लिए मना नहीं किया लेकिन डोनेशंस से सिर्फ बेसिक नीड्स ही पूरी हो सकती थीं.’’ ये सब सुनने के बाद सिद्धार्थ अवाक् रह गया. आश्चर्य, दुख, दया, स्नेह और कई भाव एकसाथ सिद्धार्थ के चेहरे पर तैरने लगे. उन दोनों के अलावा वहां अब कोई नहीं था. अगले 10-15 मिनट प्रतीक्षालय में सन्नाटा छाया रहा. न कोई संवाद न कोई हलचल. सिद्धार्थ के मन में जानकी का कद बहुत ऊंचा हो गया. उस ने जानकी से बातचीत सिर्फ समय काटने के उद्देश्य से शुरू की थी. वह नहीं जानता था कि आज जीवन की इतनी बड़ी सचाई से उस का सामना होने वाला है. फिर सिद्धार्थ ने प्रतीक्षालय में पसरी खामोशी को तोड़ते हुए कहा, ‘‘आय एम सौरी मैम, मेरा मतलब है जानकीजी. मैं सोच भी नहीं सकता था कि…मैं आवेश में पता नहीं क्याक्या बोल गया, आय एम रियली सौरी.’’

जानकी ने मुसकराते हुए कहा, ‘‘मेरे चेहरे पर तो सब लिखा नहीं था, और आप तो मुझ से आज पहली बार मिले हैं, सब कैसे जानते भला? फिर भी एक बात अच्छी हुई है, इस बहाने कम से कम आप मेरा नाम तो जान गए.’’ सिद्धार्थ ने थोड़ा ?मुसकराते हुए अचरजभरे अंदाज में बोला, ‘‘या दैट्स राइट.’’ ‘‘तब से मैममैम कर रहे थे आप और हां, ये ‘डैड’ क्या होता है, अच्छेखासे जिंदा आदमी को डैड क्यों कहते हैं,’’ कहते हुए पहली बार जानकी खिलखिलाई. सिद्धार्थ अब थोड़ा सहज हो गया था. उसे जानकी से और विस्तार से पूछने में हिचक हो रही थी, लेकिन जिज्ञासा बढ़ रही थी, इसलिए उस ने पूछ ही लिया, ‘‘आप को देख कर लगता नहीं है कि आप अनाथालय में पलीबढ़ी हैं, आय मीन आप की एजुकेशन वगैरा?’’ ‘‘सब मानसी चाची ने ही करवाई. जब मैं छोटी थी तब लगभग 19-20 लड़कियां थीं ‘वात्सल्य’ में, सब अलगअलग उम्र की. सामान्यतया अनाथालय के बच्चों को वोकेशनल ट्रेनिंग दी जाती है ताकि वे अपने पैरों पर खड़े हो सकें. हमारे यहां भी सभी लड़कियों को स्कूल तो भेजा गया. कोई 5वीं, कोई 8वीं तक पढ़ी, पर कोई भी 10वीं से ज्यादा पढ़ नहीं सकी. फिर उन्हें सिलाई, कढ़ाई, बुनाई, अचारपापड़ बनाना जैसे छोटेछोटे काम सिखाए गए ताकि वे आत्मनिर्भर हो सकें. सिर्फ मैं ही थी जिस ने 12वीं तक पढ़ाई की. मेरी रुचि पढ़ाई में थी और मेरे मार्क्स व लगन देख कर मानसी चाची ने मुझे आगे पढ़ने दिया. अनाथालय में जो कुटीर उद्योग चलते थे उस से अनाथालय की थोड़ीबहुत कमाई भी होती थी. अनाथालय की सारी लड़कियां मेरी पढ़ाई के पक्ष में थीं और इस कमाई में से कुछ हिस्सा मेरी पढ़ाई के लिए मिलने लगा. मेरी भी जिम्मेदारी बढ़ गई. सब को मुझ से बहुत उम्मीदें हैं. मुझे उन लोगों के सपने पूरे करने हैं जिन्होंने न तो मुझे जन्म दिया है और न ही उन से कोई रिश्ता है. अपनों के लिए तो सभी करते हैं, जो परायों के लिए करे वही महान होता है. चूंकि साइंस की पढ़ाई काफी खर्चीली थी, सो मैं ने आर्ट्स का चुनाव किया, बीए किया, फिर इतिहास में एमए किया. फिर एक दिन अचानक इस लैक्चरर की पोस्ट के लिए इंटरव्यू कौल आई. वही इंटरव्यू देने पुणे गई थी.’’

‘‘फिर सैलेक्शन हो गया आप का?’’ अधीरता से सिद्धार्थ ने पूछा. जानकी ने बताया, ‘‘हां, 15 दिन में जौइन करना है.’’  इसी तरह से राजनीति, फिल्मों, बाजार आदि पर बातचीत करते समय कैसे गुजर गया, पता ही नहीं चला. लगभग 2:30 बजे जानकी की गाड़ी की घोषणा हुई. इन 5-6 घंटों की मुलाकात में दोनों ने एकदूसरे को इतना जान लिया था जैसे बरसों की पहचान हो. जानकी के जाने का समय हो चुका था लेकिन सिद्धार्थ उस का फोन नंबर लेने की हिम्मत नहीं जुटा पाया. बस, इतना ही बोल पाया, ‘‘जानकीजी, पता नहीं लाइफ में फिर कभी हम मिलें न मिलें, लेकिन आप से मिल कर बहुत अच्छा लगा. आप के साथ बिताए ये 5-6 घंटे मेरे लिए प्रेरणा के स्रोत रहेंगे. मैं ने आज आप से बहुत कुछ सीखा है.’’

‘‘अरे भई, मैं इतनी भी महान नहीं हूं कि किसी की प्रेरणास्रोत बन सकूं. हो सकता है कि दुनिया में ऐसे भी लोग होंगे जो मुझ से भी खराब स्थिति में हों. मैं तो खुद अच्छा महसूस करती हूं कि जिन से मेरा कोई खून का रिश्ता नहीं है, उन्होंने मेरे जीवन को संवारा है. आप सर्वसाधन संपन्न हो कर भी अपनेआप को इतना बेचारा समझते हैं. मैं आप से यही कहना चाहूंगी कि जो हम से बेहतर हालात में रहते हैं, उन से प्रेरणा लो और जो हम से बेहतर हालात में रहते हैं, उन तक पहुंचने की कोशिश करो. यह मान कर चलना चाहिए कि जो हो रहा है, सब किसी एक की मरजी से हो रहा है और वह कभी किसी का गलत नहीं कर सकता. बस, हम ही ये बात समझ नहीं पाते. एनी वे, मैं चलती हूं, गुड बाय,’’ कह कर जानकी ने अपना बैग उठाया और जाने लगी. सिद्धार्थ ने सोचा ट्रेन तक ही सही कुछ समय और मिल जाएगा जानकी के साथ. और वह उस के पीछेपीछे दौड़ा. बोला, ‘‘जानकीजी, मैं आप को ट्रेन तक छोड़ देता हूं.’’

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जानकी ने थोड़ी नानुकुर की लेकिन सिद्धार्थ की जिद पर उस ने अपना बैग उस के हाथ में दे दिया. जल्द ही ट्रेन प्लेटफौर्म पर आ गई और जानकी चली गई. सिद्धार्थ के लिए वक्त जैसे थम सा गया. जानकी से कोई जानपहचान नहीं, कोई दोस्ती नहीं, लेकिन एक अजीब सा रिश्ता बन गया था. पिछले 5-6 घंटों में उस ने अपने ?अंदर जितनी ऊर्जा महसूस की थी, अब उतना ही कमजोर महसूस कर रहाथा. भारी मन से वह वापस प्रतीक्षालय लौट आया. अब उस के लिए समय काटना बहुत मुश्किल हो गया था. जानकी का खयाल उस के दिमाग से एक मिनट के लिए भी जा नहीं रहा था. रहरह कर उसे जानकी की बातें याद आ रही थीं. अब उसे एहसास हो रहा था कि वह आज तक कितना गलत था. इतना साधन संपन्न होने के बाद भी वह कितना गरीब था. आज अचानक ही वह खुद को काफी शांत और सुलझा हुआ महसूस कर रहा था. उस के मातापिता ने आज तक जो कुछ उस के लिए किया था उस का महत्त्व उसे अब समझ में आ रहा था. उसे लगा, सच ही तो है कि पिता के व्यवसाय को बेटा आगे नहीं बढ़ाएगा तो उस के पिता की सारी मेहनत बरबाद हो जाएगी. लोग पहली सीढ़ी से शुरू करते हैं, उसे तो सीधे मंजिल ही मिल गई है. कितनी मुश्किलें हैं दुनिया में और वह खुद को बेचारा समझता था. वह आत्मग्लानि के सागर में गोते लगा रहा था. बारबार मन स्वयं को धिक्कार रहा था कि आज तक मैं ने क्याक्या खो दिया. मन विचारमग्न था तभी अगली गाड़ी की घोषणा हुई, जिस से सिद्धार्थ को पुणे जाना था.

अगले दिन सिद्धार्थ पुणे पहुंच गया. रात जाग कर काटी थी. अब काफी थकान महसूस हो रही थी और नींद न होने से भारीपन भी. जब घर पहुंचा तो पिताजी औफिस जा चुके थे. मां ने ही थोड़े हालचाल पूछे. नहाधो कर सिद्धार्थ ने खाना खाया और सो गया. जब जागा तो डैड, जो अब उस के लिए पापा हो गए थे, वापस आ चुके थे. नींद खुलते ही सिद्धार्थ के दिमाग में वही प्रतीक्षालय और जानकी घूमने लगे. रात को तीनों साथ बैठे. सिद्धार्थ के हावभाव बदले हुए थे. मातापिता को लगा सफर की थकान है. जो सैंपल सिद्धार्थ लाया था उस ने वह पापा को दिखाए और काफी लगन से उन की गुणवत्ता पर चर्चा करने लगा. वह क्या बोल रहा था, इस पर पापा का ध्यान ही नहीं था, वे तो विश्वास ही नहीं कर पा रहे थे कि ये सब बातें सिद्धार्थ बोल रहा है जिसे उन के व्यवसाय में रत्ती भर भी रुचि नहीं है.

सिद्धार्थ बातों में इतना तल्लीन था कि समझ नहीं पाया कि पापा उसे निहार रहे हैं. रात का खाना खा कर वह फिर सोने चला गया. मातापिता दोनों ने इतने कम समय में सिद्धार्थ में बदलाव महसूस किया लेकिन कारण समझ नहीं सके. सिद्धार्थ के स्वभाव को जानते हुए उन के लिए इसे बदलाव समझना असंभव था.

क्रमश:

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