अचानक क्रोध से फट पड़े गगन त्रिपाठी. उन्होंने कहा, ‘‘अरे मूर्ख सम्राट, जो आदर्श का पाठ मैं पढ़ाता रहा हूं, वह राजनीति की बिसात थी. शिकार के लिए फैलाए दानों को तो तू ने भूख का इलाज ही बना लिया. दूर हो जा मेरे सामने से. जिस दिन दिमाग ठिकाने आए, मेरे सामने आना.’’
आराम से सभ्य शब्दों में बातें करने वाले, लोगों को पिघला कर मक्खन बनाने वाले गगन त्रिपाठी बेटे की बातों से इतने उतावले हो चुके थे कि उन की लोकलुभावन बाहरी परत निकल गई थी. वे असली चेहरे के साथ अब बाहर थे. क्यों न हो, यह तो आस्तीन में ही सांप पालने वाली बात हो गई थी न. राजनीति की इतनी सीढि़यां चढ़ने में उन के दिमाग के पुरजेपुरजे ढीले हो गए थे. और फिर सशक्त खेमे वाले विरोधियों को पछाड़ कर ऊंचाई पर बने रहने की कूवत भी कम माने नहीं रखती.
इधर एक भी ईंट भरभरी हुई, तो पूरी मीनार के ढहने का अंदेशा हो जाता है. बेटे तो नींव की ईंटें हैं, चूलें हिल जाएंगी. यह अनाड़ी तो बिना भविष्य बांचे दरदर लोगों की भलाई किए फिरता है. दिमाग ही नहीं लगाता कि जहां भलाई कर रहा है वहां फायदा है भी या नहीं. न जाति देखता, न धर्म, न विरोधी पार्टी, न विरोधी लोग. कोई भेदविचार नहीं. सत्यवादी हरिश्चंद्र सा आएदिन सत्य उगल देता है जो अपनी ही पार्टी के लिए खतरे का सिग्नल बन जाता है. सो, क्यों न इस लड़के को यहां से निकाल कर इलाहाबाद भेज दिया जाए. कम से कम इस से उस का भला हो न हो, पार्टी को नुकसान तो कम होगा. ऐसे भी इस लड़के के आसार सुख देने वाले तो लगते नहीं. काफीकुछ भलेबुरे का सोच गगन त्रिपाठी बेटे मृगांक को आईएएस की तैयारी करने के लिए इलाहाबाद छोड़ आए. जिस के पंख निकले ही थे दूसरों को मंजिल तक पहुंचाने के लिए, वह क्या दूसरों के पंख कुतरेगा खुद की भलाई के लिए?