उस दिन अचानक दोनों चांदनी चौक मार्केट में टकरा गए. एकदूसरे से मिलने के बाद उन के दिल में जो एहसास जागा, वह बयां करना भी कठिन था. त्रिशा को हर्ष का सीधासाधा, ईमानदार और हंसमुख रवैया बहुत पसंद आया था, वहीं त्रिशा की छरहरी देह, सोने जैसा दमकता रंग, बड़ीबड़ी तीखी पलकों से ढंकी आंखें, काले घने बाल और गुलाबी अधरों पर छलकती मनमोहक हंसी देख हर्ष उस की ओर खींचता चला आया था.
इस के बाद दोनों कई बार मिले. अब एकदूसरे से दोनों खुलने लगे थे। दोनों की पसंद और सोच काफी मिलतीजुलती थी. त्रिशा की तरह हर्ष भी अन्याय बरदाश्त नहीं कर सकता था. बेकार में लोगों की चापलूसी करना हर्ष को भी नहीं पसंद था. वह भी जरूरतमंद लोगों की मदद के लिए हमेशा खड़ा रहता था. दोनों की पसंदनापसंद इतनी मिलतीजुलती थी कि उन्हें लगता दोनों एकदूसरे के लिए ही बने हैं.
इन कुछ महीनों की दोस्ती में उन्हें लगने लगा कि उन्हें एकदूसरे की आदत सी हो गई है. वे एकदूसरे से बिना मिले एक दिन भी नहीं रह सकते हैं अब. यह कहना गलत नहीं होगा कि दोनों एकदूसरे की ओर आकर्षित होने लगे थे.
हर्ष का साथ पा कर त्रिशा को लगता जैसे जीवन में उसे क्याकुछ मिल गया हो. हर्ष की सोच और उस के बात करने का अंदाज त्रिशा को बहुत पसंद आता था.
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पूछती कि वह इतना अच्छा कैसे बोल लेता है? कहां से आते हैं उस के पास इतने अच्छेअच्छे शब्द? तो हर्ष कहता, “अनुभव से. जिंदगी इंसान को सबकुछ सीखा देती है। बोलना भी...” त्रिशा ने तो अपने भावी जीवनसाथी के रूप में हर्ष को देख लिया था. जानती थी डैडी को मनाना मुश्किल नहीं होगा, पर मम्मी को मनाना थोड़ा कठिन है. लेकिन उसे विश्वास था कि हर्ष को देख कर वह भी मान जाएगी.