लेखिका- डा. ऋतु सारस्वत
‘‘तुम कहां थी. मेरा मन कितना घबरा रहा था. घड़ी देखो इरा, 8 बज चुके हैं. तुम से हजार बार कह चुकी हूं कि अंधेरा होने के बाद मुझे तुम्हारा घर से बाहर रहना पसंद नहीं है…’’ ‘‘सौरी,’’ यह कह कर मैं अपने कमरे में जा कर गुस्से में लेट गई. ‘कौन सा मैं घूमने गई थी. नोट्स ही तो बना रही थी शुभ्रा के घर. थोड़ी सी देर हो जाए तो हंगामा शुरू. हम अकेले रहते हैं तो क्या, मैं ने कहा था अकेले रहने के लिए’, मन ही मन मैं बड़बड़ाए जा रही थी कि मां ने आवाज लगाई, ‘‘इरा, खाना लग चुका है, आ जाओ.’’
इच्छा न होते हुए भी मैं किचन की ओर बढ़ गई. खाना खाते हुए मैं ने मां से पूछा, ‘‘मम्मा, कल हमारी क्लास पिकनिक पर जा रही है, मैं भी…’’
‘‘नहीं इरा, यह संभव नहीं है और प्लीज नो डिस्कशन.’’
‘‘तो ठीक है, मैं कल से घर पर ही रहूंगी, कालिज जाना बंद. वैसे भी घर से सुरक्षित जगह और कोई नहीं हो सकती. शहर भर में गुंडे मुझे ही तो ढूंढ़ रहे हैं…’’
मैं इस से आगे कुछ कहती कि मां ने मुझे गुस्से से देखा और मैं खाना छोड़ कर अपने कमरे में चली गई.
अगर मां जिद्दी हैं तो मैं भी उन की बेटी हूं, कल से कालिज नहीं जाऊंगी और यह निश्चय कर के मैं सो गई. सुबह जब आंख खुली तो 9 बज चुके थे. आज मेरी खैर नहीं. मां ने आज गुस्से में मुझे उठाया नहीं, लगता है… यह सोच ही रही थी कि मां की आवाज सुनाई दी, ‘‘इरा, मैं आफिस जा रही हूं, तुम्हारा नाश्ता मेज पर रखा है.’’
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मैं ने उठ कर दरवाजा बंद किया और मां के कमरे की ओर मुड़ गई. देखा तो मां जल्दी में अलमारी की चाबी भूल गईं थीं. न जाने क्यों मैं ने मां की अलमारी खोल ली, देखा तो सामने लाल रंग की डायरी रखी थी. उत्सुकतावश मैं ने उसे उठाया और डायरी ले कर बाहर बालकनी में आ कर बैठ गई. मैं ने हिचकते हुए उसे पढ़ना शुरू किया.
‘शेखर, तुम्हें इस दुनिया से गए आज पूरे 2 महीने बीत गए हैं. तुम्हारे बगैर जीने की कतई इच्छा नहीं है पर तुम मुझे जीने की वजह दे गए हो. मेरी कोख में तुम्हारी निशानी है. घर का माहौल तनावग्रस्त रहता है. अम्मांबाबूजी को एक ओर तो तुम्हारे जाने का गम है, दूसरी ओर मेरे पापामम्मी का बढ़ता हुआ दबाव. पापा चाहते हैं कि मैं अपनी कोख को खत्म कर दूं जिस से वह मेरी दोबारा शादी कर सकें.
‘मैं जानती हूं इस संसार में सब से बड़ा दुख संतान का होता है. उन की बेटी छोटी सी उम्र में विधवा हो गई, यह दुख पहाड़ से भी बड़ा है और यही वजह है वह मेरी शादी करना चाहते हैं, पर मैं ऐसा नहीं चाहती. मैं भी तो मां बनने जा रही हूं. कैसे अपने तुच्छ स्वार्थ के लिए अपने बच्चे को…मैं ऐसी कल्पना भी नहीं कर सकती. तुम ने जो मुझे प्यार दिया है मैं उस के सहारे अपना सारा जीवन निकाल लूंगी.’
10 जनवरी, 1984.
‘अम्मांबाबूजी मेरा बहुत ध्यान रखते हैं. उन की आंखें हर पल, तुम्हारे रूप में अपने पोते का इंतजार कर रही हैं पर डर लगता है कि अगर उन की यह इच्छा पूरी नहीं हुई तो क्या होगा?’
15 अप्रैल, 1984.
‘जिस का डर था वही हुआ. अम्मांबाबूजी की उम्मीद टूट गई. मैं अपनी गोद में इरा को पा कर बहुत खुश हूं. तुम भी तो यही चाहते थे. शेखर, इरा चांद का टुकड़ा है पर चांद की तरह उस पर भी दाग है. दुर्भाग्य का दाग. इस संसार में वह बच्चा दुर्भाग्यशाली ही तो कहलाएगा जिस के पास पिता की छांव न हो. शेखर, मुझे अम्मांबाबूजी का व्यवहार पीड़ा पहुंचाता है. इरा को वह गोदी में लेना पसंद नहीं करते. उन की नजरों में वह मनहूस है जो इस दुनिया में आने से पहले अपने पिता को खा गई.’
10 अगस्त, 1984.
‘शेखर, आज मैं ने बाबूजी का घर छोड़ दिया क्योंकि मुझ से पलपल अपनी बेटी का अपमान बरदाश्त नहीं होता. इरा अभी तो छोटी है पर जिस पल उसे खुद के लिए अम्मांबाबूजी की नफरत समझ में आएगी वह टूट जाएगी. अम्मां ने कल रात को उसे अपने कमरे से यह कह कर भगा दिया कि वह मनहूस है. मैं नहीं चाहती कि मेरी बच्ची इतनी नफरत के बीच में पले.’
25 जुलाई, 1986.
मां के लिखे एकएक शब्द मेरे अस्तित्व को झकझोर रहे थे. मैं ने डायरी का अगला पन्ना पलटा.
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‘शेखर, मैं बहुत थकने लगी हूं. पिता और मां दोनों की जिम्मेदारियों का निर्वाह करतेकरते मैं खुद क्या हूं भूल जाती हूं. इरा, अपने दादादादी के बारे में पूछती है. उस की खुशी के लिए मैं ने एक दिन घर फोन कर के आने के लिए पूछा था पर बाबूजी ने कहा कि हम दोनों उन के लिए मर चुके हैं.
‘रिश्तों की भीड़ में हम अकेले हैं. मम्मीपापा के पास चाह कर भी नहीं जा सकती, क्योंकि वहां भाभी की शंकित निगाहें मुझे भीतर तक टटोल लेना चाहती हैं कि कहीं मैं उन के घर पर कब्जा जमाने तो नहीं आ गई. मम्मीपापा बेबसी से मुझे देखते हैं. वह स्वयं भैयाभाभी पर निर्भर हैं. अब इरा ही मेरा संसार है.’
30 अगस्त, 1990.
‘आज पहली बार मैं ने इरा पर हाथ उठाया है. मुझे इस का बहुत दुख है. क्या करूं, उस के परीक्षा में नंबर कम आए हैं. अगले साल बोर्ड है, अगर ऐसा ही रहा तो मैं क्या करूंगी? हर तरफ सिर्फ एक ही बात होगी कि बिन बाप की बच्ची है इसलिए ऐसा हुआ. मैं हर पल सूली पर खड़ी होती हूं, जहां मेरा चरित्र, मेरे गुणअवगुण, मेरा सबकुछ मेरे अकेले होने से मापा जाता है, यहां तक कि मेरा मातृत्व भी हमेशा प्रश्नों के कटघरे में खड़ा रहता है.’
30 अप्रैल, 1999.
‘आज इरा का कालिज का पहला दिन है. शेखर, तुम्हारी बिटिया बड़ी हो गई है और मैं कमजोर. अभी तक तो मैं ने उसे अपने आंचल में छिपा कर रखा था पर क्या अब मैं उसे समाज की गंदगी से दूर रख पाऊंगी. वह भी तो दूसरी लड़कियों की तरह जीना चाहेगी, क्या मैं उसे यह आजादी दे पाऊंगी. आज बहुत डर लग रहा है. इरा अगर भटक गई… नहींनहीं, ऐसा नहीं हो सकता…मैं यह क्या सोच रही हूं.’
1 जुलाई, 2001.
‘आज का दिन मेरे लिए बहुत बुरा था. आज आफिस में मिसेज भटनागर कह रही थीं कि मुझे इरा पर कड़ी निगाह रखनी चाहिए, बिन बाप की बच्ची कहीं भटक…मैं इस से आगे कुछ कह नहीं पाई. क्या मुझ से भूल हो गई है? क्या मुझे पापामम्मी की बात मान लेनी चाहिए थी? मैं ने खुद के लिए कभी न खत्म होने वाला अकेलापन चुना जिस से मेरी बच्ची सुरक्षित रहे, पर क्या मेरी सुरक्षा की परिभाषा गलत थी? क्या मेरे साथसाथ मेरी बच्ची को भी हरपल अग्नि परीक्षा देनी होगी? नहीं, मैं ऐसा नहीं होने दूंगी, पर कैसे?’
9 नवंबर, 2001.
‘इरा 22 साल की हो गई है. मुझे उस के भविष्य की चिंता हो रही है. कुछ ही सालों में वह अपने घर चली जाएगी. कैसे उस के लिए एक अच्छा जीवनसाथी खोजूं. काश, तुम मेरे पास होते. इरा के जाने के बाद मैं क्या करूंगी. कितना अकेलापन होगा, सोच कर भी डर लगता है.’
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15 अगस्त, 2006.
यह आखिरी पन्ना था. नजरें उठा कर देखा तो 4 बजने को थे. मेरा मन ग्लानि से भरा हुआ था. क्यों नहीं समझ पाई मैं अपनी मां की तकलीफ? मां के प्रति अपने किए गए हर बुरे बरताव पर मुझे शर्मिंदगी हो रही थी.
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