लेखिका- डा. ऋतु सारस्वत
दूसरे दिन जब मैं कालिज गई तो शालिनी मुझ से 6 से 9 वाले शो की मूवी देखने को बोली. मैं ने हां कर दी. पर फिर सोचने लगी कि कैसे मम्मा को मनाऊंगी. कालिज से मैं सीधे डा. सिद्धांत के घर गई. मेरी परेशानी सुन कर उन्होंने मुझे आश्वासन दिया कि वह मम्मा को मना लेंगे. थोड़ी देर में जब वह घर आए तो मैं ने जानबूझ कर उन्हीं के सामने मूवी देखने जाने की बात की.
मेरी बात को सुन कर मां बोलीं, ‘‘इरा, तुम जानती हो यह संभव नहीं है उस पर रात का शो तो बिलकुल नहीं.’’
‘‘रुद्राजी, जाने दीजिए, मेरी बेटी बड़ी हो गई है. आप रात की चिंता मत कीजिए. मैं इरा को लेने चला जाऊंगा.’’
डा. सिद्धांत की बात को सुन कर मां ने मौन स्वीकृति दे दी. मुझे पहली बार एहसास हो रहा था कि पिता रूपी सुरक्षा कवच क्या होता है.
मुझे डा. सिद्धांत के साथ बिताया हर पल बहुत खुशी देता. क्या मां को भी
डा. सिद्धांत का साथ सुकून देता है, यह सवाल बारबार मुझे परेशान करता. मां अपने मन की हर बात अपनी डायरी में लिखती हैं यह सोच कर मां के आफिस जाने के बाद मैं ने चुपचाप अलमारी से मां की डायरी निकाली और पढ़नी शुरू की.
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‘इरा, आज पहली बार अपनी सहेलियों के साथ इतनी रात गए बाहर गई है पर आज मुझे डर नहीं लगा. क्या इस का कारण डा. सिद्धांत हैं? उन्होंने मुझे आफिस से देर से आने पर टोका. मुझे उन का टोकना बुरा क्यों नहीं लगा? बरसों बाद लगा कि मैं भी जीतीजागती इनसान हूं, जिस की किसी को परवा है. यह एहसास एक अजीब सा सुकून दे रहा है. कहीं मैं गलत तो नहीं? शेखर, क्या मैं तुम्हारी यादों के साथ अन्याय कर रही हूं? यह सब क्या है, कुछ समझ नहीं आ रहा.’