बाबूजी के प्रति एक नई स्नेहधारा प्रवाहित होने लगी उस के हृदय में. उस की थीसिस जमा हो गई थी. अब बाकी रहा था साक्षात्कार. सुबहसुबह बस से इंटरव्यू के लिए जाना था. घर के सभी सदस्य अभी सो रहे थे. उस के एक परीक्षक आज ही वापस भी चले जाने वाले थे शाम की गाड़ी से, इसलिए इतनी सुबह जाना था. किसी तरह तैयार हो कर वह निकली. सामने कांपते हाथों में चाय का प्याला पकड़े बाबूजी खड़े थे. लज्जित हो वह बोली, ‘‘आप ने क्यों तकलीफ की?’’
सस्नेह वे बोले, ‘‘मेरी कामना है कि तुम्हारा उद्देश्य सफल हो.’’ झुक कर उन के पांव छू कर वह चल दी.
एकांत के सुनहरे क्षणों में स्नेहमयी बांहों की घेराबंदी से अपने को मुक्त करती हुई वह बोली, ‘‘आज मुझे सुबहसुबह बड़ी अजीब सी स्थिति का सामना करना पड़ा. बाबूजी ने स्वयं अपने हाथों से मुझे चाय बना कर ला कर दी है.’’
‘‘तो इस में इतना परेशान होने की क्या बात है, रानी? बाबूजी तो काफी समय से यही करते आए हैं. मां इतनी सुबह उठ नहीं पाती थीं. रात में घर के ढेरों काम रहते थे. बाबूजी रोज 5 बजे सुबह हम लोगों को चाय बना कर देते थे. तब कहीं जा कर हम लोग पढ़ने के लिए बैठते थे.’’ ‘‘ओह डार्लिंग, जिस बात को तुम लोग इतना सामान्य मानते हो, वह मेरे लिए एक निहायत ही मूल्यवान अनुभव है,’’ वह बोली, और उत्तर में मिली एक मुसकान.
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इस घर के चारों ओर जो हरियाली थी उसी के कारण पड़ोसी उसे ग्रीन हाउस कहते और इस परिवार के सदस्यों का आपसी स्नेह सब की ईर्ष्या की वस्तु थी. नई बहू का शोषण करने के इरादे से कोई बातूनी आ कर कहती, ‘‘चलो न, छोटी, आज मेरे पति फ्री हैं. हम दोनों नाइट शो देख आएं. मेरे पति, तुम्हारे पति के सहकर्मी ही नहीं, जिगरी दोस्त भी हैं.’’ तनिक झिझक से वह कहती, ‘‘बाबूजी को ज्यादा रात गए घर लौटना पसंद नहीं है.’’