आज देश में अगर हर जगह किसी चीज की चर्चा है तो वह नरेगा यानी नेशनल रूरल एंप्लायमेंट गारंटी ऐक्ट ही है. स्वाइन फ्लू व बर्ड फ्लू आदि तो बरसाती मेढक की तरह हैं जो कुछ समय के लिए टर्रटर्र करने के बाद इतिहास में उसी तरह विलीन हो जाते हैं जैसे भारत का किसी भी ओलिंपिक खेलों में प्रदर्शन विलीन हो जाता है. इतिहास को बदलने की शुरुआत जरूर निशानेबाज अभिनव बिंद्रा व मुक्केबाज बिजेंद्र कुमार ने की, नहीं तो हमारा ओलिंपिक में पदक के मामले में निल का स्वर्णिम इतिहास रहा है.
हां, ओलिंपिक खेलों में हमारा दल जरूर सदलबल रहा है. यानी अगर 50 खिलाड़ी गए तो अधिकारी 49 कभी नहीं रहे, 50 को तो पार कर ही जाते थे. आखिर हर खिलाड़ी के पीछे एक अधिकारी तो होना चाहिए न. उसे असफल होने पर धक्का लगाने के प्रयोजन से. एक कहावत है कि हर सफल पुरुष के पीछे एक महिला होती है. हमारे यहां हर असफल खिलाड़ी के आगे एक अधिकारी होता है.
वैसे हम अपने राष्ट्रीय खेल हाकी में फिसड्डी हो गए हैं तो अब सभी के प्रिय खेल ‘नरेगानरेगा’ को राष्ट्रीय खेल घोषित कर दिया जाए. वैसे अघोषित रूप से यह राष्ट्रीय क्या अंतर्राष्ट्रीय खेल हो गया है क्योंकि कई अंतर्राष्ट्रीय विशेषज्ञ नरेगा की समस्याओं, उलझनों की आग में अपनी रोटी सेंक रहे हैं.
कहां नरेगा, कहां खेल. आप को यह अटपटा लग रहा होगा. पर सच है, बहुत से लोगों के लिए नरेगा ने एक नए खेल के रूप में जन्म लिया है. नरेगा में सरकार ने कानूनी रूप से मजदूर को, जो अपने ही क्षेत्र में काम करना चाहता है, 100 दिन के रोजगार की गारंटी दी है. नहीं तो सरकार को बेरोजगारी भत्ता देना पड़ता है. नरेगा के वास्तविक हकदार वे मजदूर हैं जिन की रोजीरोटी की कोई स्थायी व्यवस्था नहीं है और वे शारीरिक श्रम करने को मजबूर व सहमत हैं.