पहले मैं इस भरम में जीता था कि हर इनसान इज्जत के साथ अपनी जिंदगी बिताना चाहता है लेकिन बाद में मेरी इस सोच में बदलाव तब आया जब मुझे अपनी खुद की आंखों से बेइज्जती के साथ जीनेमरने की कसमें खाने वाले धुरंधरों के दर्शन करने का मौका मिला.
भारत की खोज बड़े ही मौज के साथ वास्को डी गामा ने की थी, लेकिन बेइज्जती के बोझ की खोज किस रोज और किस ने की थी, यह बता पाना उतना ही मुश्किल है जितना मुश्किल आम आदमी के लिए बिना रीचार्ज किए स्मार्ट फोन की बैटरी को पूरा दिन चलाना है.
कुछ लोग बेइज्जत होने को अपना बुनियादी हक मानते हैं और इसे पाने के लिए वे लगातार अपनी इज्जत को तारतार करते हुए इसी जद्दोजेहद में लगे रहते हैं. ‘बेइज्जती पिपासु’ लोगों को अपनी पूरी उम्र इज्जत की प्राणवायु हजम नहीं होती है. इज्जत भरी जिंदगी की इच्छा से ही ‘बेइज्जती प्रिय’ लोग सहम जाते हैं और इज्जत जैसी नुकसान पहुंचाने वाली और मारक चीज से उचित दूरी बना कर चलते हैं. बेइज्जत होना इन के लिए रोटी, कपड़ा और मकान जैसी बुनियादी जरूरतों में शुमार होता है.
बेइज्जती के नशेड़ी उलट हालात में भी बेइज्जती का हरण कर उस का वरण करने में कामयाब हो जाते हैं. आम का सीजन हो या केले का, ये लोग हमेशा से ही सरेआम बेइज्जती से गले मिलना पसंद करते हैं ताकि सार्वजनिक जिंदगी में ट्रांसपेरैंसी बनी रहे.
इसी ट्रांसपेरैंसी और ईमानदारी के चलते ये जल्द ही बेइज्जती के वामन रूप से विराट रूप धर लेते हैं. हर देश, काल और हालात में ‘बेइज्जती उपासक’ अपनी निष्ठा और निष्ठुरता से बेइज्जती हासिल कर ही लेते हैं.
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