मैं कोविड हॉस्पिटल के रिसेप्शन पर खड़ा था. हाथ में कोरोना निगेटिव की रिपोर्ट थी. आसपास कुछ लोग तालियां बजा कर उस का अभिनंदन कर रहे थे. दरअसल यह रिपोर्ट मेरे एक कमरे के उस जेल से आजादी का फरमान था जिस में मैं पिछले 10 दिनों से बंद था. मेरा अपराध था कोरोना पॉजिटिव होना और सजा के रूप में मुझे दिया गया था आइसोलेशन का दर्द.

आइसोलेशन के नाम पर मुझे न्यूनतम सुविधाओं वाले एक छोटे से कमरे में रखा गया था जहां रोशनी भी सहमसहम कर आती थी. उस कमरे का सूनापन मेरे दिल और दिमाग पर भी हावी हो गया था. वहां कोई मुझ से बात नहीं करता था न कोई नज़दीक आता था. खाना भी बस प्लेट में भर कर सरका दिया जाता था. मन लगाने वाला कोई साधन नहीं, कोई अपना कोई हमदर्द आसपास नहीं. बस था तो सिर्फ एक खाली कमरा और खामोश लम्हों की कैद में तड़पता मेरा दिल जो पुरानी यादों के साए में अपना मन बहलाने की कोशिश करता रहता था.

इन 10 दिनों की कैद में मैं ने याद किए थे बचपन के उन खूबसूरत दिनों को जब पूरी दुनिया को मैं अपनी मुट्ठी में कैद कर लेना चाहता था. पूरे दिन दौड़भाग, उछलकूद और फिर घर आ कर मां की गोद में सिमट जाना. तब मेरी यही दिनचर्या हुआ करती थी. उस दौर में मां के आंचल में कैद होना भी अच्छा लगता था क्यों कि इस से आजाद होना मेरे अपने हाथ में था.

सचमुच बहुत आसान था मां के प्यार से आजादी पा लेना. मुझे याद था आजादी का वह पहला कदम जब हॉस्टल के नाम पर मैं मां से दूर जा रहा था.

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