लेखिका- प्रेमलता यदु
एक महीने से गीतिका खुद को पूरी तरह भुला कर रातदिन अपने एक नए प्रोजैक्ट पर काम कर रही है. यह प्रोजैक्ट उस के कैरियर को नया आयाम देने वाला है. प्रोजैक्ट के ऐप्रूव्ड होते ही कंपनी द्वारा उसे प्रोजैक्ट हेड बना कर एक साल के लिए न्यूजर्सी जाने का मौका मिलने वाला है. और गीतिका यह मौका किसी भी कीमत पर खोना नहीं चाहती.
गीतिका जितनी जल्दी हो सके इंडिया से बाहर चली जाना चाहती है. वह अपने काम में कुछ इस तरह गुम हो जाना चाहती है कि वह अपनेआप को भी भुला देना चाहती है और साथ ही, वह बचपन से जुड़ी हर कड़वी याद को अपने स्मृतिपटल से निकाल फेंकना चाहती है. जब से उस ने होश संभाला है तब से ले कर आज तक वह इसी कोशिश में रही है. इतने सालों बाद आज भी उसे अपना बचपन डरावना लगता है, लेकिन भला ऐसा कभी हुआ है. मनुष्य जिन यादों को जितना भूलना चाहता है वे उतना ही उस का पीछा करती हैं.
गीतिका का बचपन दूसरे बच्चों के बचपन से बिलकुल अलग रहा. वह चाह कर भी अपने बचपन को आम बच्चों की तरह जी नहीं पाई, जिसे ले कर आज भी उस के मन में गुस्सा और कसक है, जो उसे टीस की तरह चुभते हैं. उस की कोई गलती न थी, लेकिन सज़ा उसे मिली. स्कूल में, समाज में और फ्रैंड्स के बीच सदा उस का उपहास हुआ. अपने बड़े से मकान के एक छोटे से कोने में न जाने उस ने कितना ही वक्त अकेले रोते हुए गुज़ारा है.
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