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आज पूरे 12 साल बाद आखिर तन्वी के सब्र का बांध टूट ही गया. वह अपनी 2 साल की बेटी को गोद में उठाए अपना घर छोड़ कर निकलने को मजबूर हो गई. घर से सीधे रेलवे स्टेशन जा कर उस ने अपने मायके के शहर का टिकट लिया और टे्रन में चढ़ गई. गुस्से के मारे उस का शरीर उस के वश में नहीं था.

बेटी आस्था को सीट पर लिटा कर वह खुद खिड़की से सिर टिका कर बैठ गई. टे्रन ज्योंही स्टेशन छोड़ कर आगे बढ़ी, घंटों से रोका हुआ उस का आंसुओं का सैलाब उमड़ पड़ा और वह अपनी हथेलियों से मुंह छिपा कर रो पड़ी. आसपास के सहयात्रियों की कुतूहल भरी निगाहों का एहसास होते ही उस ने अपनेआप को संभाला और आंसू पोंछ कर खुद को संयत करने की कोशिश करने लगी. थोड़ी ही देर में वह ऊपर से तो सहज हो गई पर भीतर का भयंकर तूफान उमड़ताघुमड़ता रहा.

आसान नहीं होता है किसी औरत के लिए अपना बसाबसाया घरसंसार अपने ही हाथों से बिखेर देना. पर जब अपने ही संसार में सांस लेना मुश्किल हो जाए, तो खुली हवा में सांस लेने के लिए बाहर निकलने के अलावा कोई चारा ही नहीं रह जाता. रहरह कर तन्वी की आंखें गीली होती जा रही थीं. सब कुछ भूलना और नई जिंदगी की शुरुआत कर पाना दोनों ही बहुत मुश्किल थे, पर अजीत के साथ पलपल मरमर कर जीना अब उस के बस की बात नहीं रह गई थी.

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