राइटर- सुधा थपलियाल

शाम के साढ़े 4 बजे रोजमर्रा की तरह मैं टीवी खोल कर देशविदेश की खबरें देखने लगा. थोड़ीबहुत देशविदेश और खेल जगत की खबरों के अतिरिक्त, बाकी खबरें लगभग वही थीं, कुछ भी बदला हुआ नहीं था, बस तारीख और दिन के.

शाम के 5 बजते ही फिर विभिन्न चैनलों में शुरू हो जाता है कहीं बहस, कहीं टक्कर, कहीं दंगल, तो कहीं ताल ठोंक के. बहुत बार न चाहते हुए भी मैं इन को देखने लग जाता हूं, यंत्रचलित सा. इस में आमांत्रित किए गए वक्ताओं में अधिकतर विभिन्न राजनीतिक पार्टियों के प्रवक्ताओं के अतिरिक्त कुछ राजनीतिक विश्लेषक, कभी सामरिक विषयों पर चर्चा के दौरान सेना में उच्च पदों पर अपना योगदान दे चुके सेनाधिकारी और सामाजिक कार्यकर्ता होते हैं. अब तो धर्मगुरु भी खूब नजर आते हैं. एंकर कार्यक्रम के नामानुसार बहस के संचालन में पूरा न्याय करते दिखाई देते हैं.

दिनभर के चर्चित किसी सनसनीखेज ज्वलंत मुद्दे पर उठी बहस से शीघ्र ही शुरू हो जाता आरोपप्रत्यारोप का दौर. कुछ बुद्धिजीवी वक्ताओं की सही और सटीक बातों को विभिन्न राजनीतिक पार्टियों के प्रवक्ताओं की बुलंद आवाज और आपसी तनातनी के बीच में हमेशा दबते हुए ही देखा. अकसर ही बहस मुख्य मुद्दे से भटक कर कहीं और चली जाती है, जिस का विषय से दूरदूर तक कोई लेनादेना दिखाई नहीं देता. यह चैनल क्या दिखा रहे हैं? और, हम क्या देख रहे हैं? इसी कशमकश में दर्शकगण उलझे ही होते हैं कि एंकर के द्वारा कार्यक्रम की समाप्ति की घोषणा कर दी जाती है.

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