पलकें मूंदे मैं आराम की मुद्रा में लेटी थी तभी सौम्या की आवाज कानों में गूंजी, ‘‘मां, शलभजी आए हैं.’’

उस का यह शलभजी संबोधन मुझे चौंका गया. मैं भीतर तक हिल गई परंतु मैं ने अपने हृदय के भावों को चेहरे पर प्रकट नहीं होने दिया, सहज भाव से सौम्या की तरफ देख कर कहा, ‘‘ड्राइंगरूम में बिठाओ. अभी आ रही हूं.’’

उस के जाने के बाद मैं गहरी चिंता में डूब गई कि कहां चूक हुई मुझ से? यह ‘शलभ अंकल’ से शलभजी के बीच का अंतराल अपने भीतर कितना कुछ रहस्य समेटे हुए है. व्यग्र हो उठी मैं. सच में युवा बेटी की मां होना भी कितना बड़ा उत्तरदायित्व है. जरा सा ध्यान न दीजिए तो बीच चौराहे पर इज्जत नीलाम होते देर नहीं लगती. मुझे धैर्य से काम लेना होगा, शीघ्रता अच्छी नहीं.

प्रारंभ से ही मैं यह समझती आई हूं कि बच्चे अपनी मां की सुघड़ता और फूहड़ता का जीताजागता प्रमाण होते हैं. फिर मैं तो शुरू से ही इस विषय में बहुत सजग, सतर्क रही हूं. मैं ने संदीप और सौम्या के व्यक्तित्व की कमी को दूर कर बड़े सलीके से संवारा है, तभी तो सभी मुक्त कंठ से मेरे बच्चों को सराहते हैं, साथ में मुझे भी, परंतु फिर यह सौम्या...नहीं, इस में सौम्या का भी कोई दोष नहीं. उम्र ही ऐसी है उस की. नहीं, मैं अपने आंगन की सुंदर, सुकोमल बेल को एक बूढ़े, जर्जर, जीर्णशीर्ण दरख्त का सहारा ले, असमय मुरझाने नहीं दूंगी.

अब तक मैं अपने बच्चों के लिए जो करती आई हूं वह तो लगभग अपनी क्षमता और लगन के अनुसार सभी मांएं करती हैं. मेरी परख तो तब होगी जब मैं इस अग्निपरीक्षा में खरी उतरूंगी. मुझे इस कार्य में किसी का सहारा नहीं लेना है, न मायके का और न ससुराल का. मुंह से निकली बात पराई होते देर ही कितनी लगती है. हवा में उड़ती हैं ऐसी बातें. नहीं, किसी पर भरोसा नहीं करना है मुझे,  सिर्फ अपने स्तर पर लड़नी है यह लड़ाई.

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