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कहानी- नज्म सुभाष

अचानक उस के मन ने उसे धिक्कारा... वाह माधवी वाह... मधुमालती से माधवी बन गई तुम, केवल नाम बदल दिया... मगर स्त्रीत्व... उसे कैसे बदलोगी? अगर तुम उसे नहीं जानती तो फिर तुम्हारे गले में मंगलसूत्र, मांग में लगा सिंदूर किसलिए और किस के लिए? उतार फेंको यह मंगलसूत्र, पोंछ डालो सिंदूर... अरुण कुमार के नाम के ये बंधन भी किसलिए? लेकिन तुम ऐसा नहीं कर सकती... भले ही ऊपर से चाहे जो कुछ कहो माधवी, लेकिन तुम्हारा मन क्या कभी उसे भूला... नहीं कभी नहीं... तुम्हारी गजलों में मुखर पीड़ आखिर किस की है? फिर तुम ने उसे पहचानने से कैसे इनकार कर दिया?

‘‘चुप हो जाओ... मैं अब कुछ भी नहीं सुन सकती,’’ वह चीखते हुए रो पड़ी.

उस की चीख सुन कर अदिति जग गई. किसी तरह सम झाबु झा कर उस ने फिर से सुला दिया. लेकिन खुद न सो सकी... पुराने दिनों की यादें उस के जेहन को मथती रहीं...

रात का करीब 1 बज रहा था जब फोन की घंटी घनघना उठी. वैसे तो वह सोई नहीं थी, किंतु उस का मन फोन उठाने का नहीं था, लेकिन घंटी जब काफी देर तक बजती रही तो उसे फोन उठाना पड़ा.

‘‘हैलो, कौन?’’ उस ने पूछा.

‘‘मैं निर्मल बोल रहा हूं, उधर से खोईखोई सी आवाज आई.’’

‘‘इतनी रात गए सर... सर सब ठीक तो है न?’’ उस ने बड़ी हैरत से पूछा.

‘‘मैं जो कुछ पूछ रहा हूं सचसच बताना. क्या आप अरुण कुमार को जानती हैं?’’

उस के कानों में जैसे विस्फोट हुआ... लेकिन जल्द ही संभल कर बोली, ‘‘आज इतनी रात गए आप ये सब क्यों पूछ रहे हैं?’’

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