पिछला भाग- अपने अपने शिखर: भाग-1
छुट्टी होने पर छात्राओं की भीड़ में वे साथसाथ कालेज के गेट से बाहर आईं. गेट के बाहर चौड़ी सड़क पर नेवीब्लू रंग की यूनीफौर्म में छात्राओं के झुंड थे और उन के स्वरों का कलरव. सड़क के उस पार अपनी कार के पास खड़ी साखी की मम्मी अपनी बेटी को भीड़ में पहचानने की कोशिश कर रही थीं. उन के आने का उद्देश्य अपनी बेटी को घर वापस ले जाने का तो था ही, उस से भी जरूरी था बेटी के रोज आनेजाने की व्यवस्था करना. इस के लिए वे एक औटो वाले से बात भी कर चुकी थीं. बड़े शहर की भीड़भाड़ को ले कर वे चिंतित थीं. जहां उन का निवास था, वहां से कालेज की दूरी काफी थी और उस रूट पर कालेज की बस सेवा नहीं थी.
छात्राओं की भीड़ में उन का ध्यान साखी ने भंग किया, ‘‘मम्मी, मैं इधर. इस से मिलिए, यह है मेरी नई फ्रैंड, सांची…सांची राय.’’
सांची ने प्रणाम के लिए हाथ जोडे़ ही थे कि साखी ने परिचय की दूसरी कड़ी पूर्ण कर दी, ‘‘सांची, ये हैं मेरी मम्मी.. बहुत प्यारी मम्मी.’’
मम्मी ने मुसकराते हुए पूछा, ‘‘कहां रहती हो बेटी?’’
‘‘जी, सिविल लाइंस में.’’
‘‘अरे मम्मी छोडि़ए,’’ साखी ने बात काटते और रहस्योद्घाटन सा करते हुए कहा, ‘‘मम्मी, ये मेरी जुड़वां है. इस की और मेरी डेट औफ बर्थ एक ही है और यह भी रावनवाड़ा में पैदा हुई. है न को इंसीडैंट?’’
‘‘अच्छा, वहीं की रहने वाली हो?’’
‘‘नहीं आंटी, उस समय मेरे पापा की पोस्टिंग वहां थी.’’
पास में खड़ी सरकारी गाड़ी का ड्राइवर उन के करीब आ खड़ा हुआ. सांची ने अपना बैग उस की ओर बढ़ाते हुए कहा, ‘‘आंटी, ये मेरे पापा के ड्राइवर हैं, मुझे लेने आए हैं.’’
मम्मी ने घूम कर ड्राइवर की ओर देखा और पास खड़ी सरकारी गाड़ी को देखते हुए चौंक कर पूछा, ‘‘तुम ए.बी. राय साहब की बेटी तो नहीं?’’
‘‘जी आंटी.’’
‘‘अरे, तब तो तुम सच में जुड़वां की तरह ही हो. कैसा संयोग है. इतने सालों बाद तुम दोनों एकसाथ खड़ी हो.’’ साखी और सांची के चेहरों पर प्रसन्नता के भाव आ गए थे.
‘‘तब तो तुम ने अपने पापा की गाड़ी से कालेज आयाजाया करोगी?’’
‘‘नहीं आंटी, शायद बस से… लेकिन बस में तो बहुत समय बरबाद होता है. बहुत घूमघूम कर आती है.’’
‘‘तो औटो से आओजाओ न और लड़कियों के साथ. साखी के लिए तो मैं ने एक औटो वाले से बात कर ली है. कहो तो तुम्हारे लिए भी कर लूं, सिविल लाइंस तो रास्ते में ही पड़ेगा.’’
‘‘ठीक है आंटी, लेकिन पापा से पूछना पड़ेगा. अच्छा नमस्ते आंटी.’’
‘‘नमस्ते बेटा, अपनी मम्मी से मेरा नमस्ते बोलना. मैं उन से मिलने आऊंगी. मेरी उन से बहुत पुरानी पहचान है, उतनी पुरानी जितनी तुम्हारी उम्र है,’’ उन के स्वर में उत्साह आ गया था.
फिर दोनों ने साथ आना, साथ जाना शुरू कर दिया और एक ही कोचिंग में पढ़ते हुए 11वीं, फिर 12वीं की परीक्षाएं लगभग बराबर अंक पा कर पास कीं. दोनों का लक्ष्य था, प्री मैडिकल टैस्ट पास कर के एमबीबीएस करना. दोनों ने गंभीरता से पढ़ाई शुरू कर दी.
परीक्षाएं पूरी होने पर दोनों संतुष्ट थीं, परिणाम के प्रति आशान्वित भी. परिणाम घोषित हुआ तो वे अलगअलग शहरों में थीं क्योंकि अपनेअपने पिता के स्थानांतरण के कारण उन के शहर बदल गए थे. लेकिन समाचारपत्र में छपा अपना अनुक्रमांक व उच्च वरीयता क्रम देख कर साखी की आंखों से खुशियां नहीं आंसू छलके. कारण, सांची के अनुक्रमांक का कहीं अतापता नहीं था. उसे यह बहुत अविश्वसनीय सा लगा. साखी अपने वर्ग की मैरिट लिस्ट में बहुत ऊपर थी. उसे प्रदेश के सर्वश्रेष्ठ मैडिकल कालेज में प्रवेश मिला.
एक दिन उस का सांची से सामना हो गया. वह अपने परिजनों के साथ किसी रिश्तेदार मरीज को देखने आई थी. उस से मिल कर साखी को अच्छा लगा. वह इतना हताशनिराश नहीं थी, जितना साखी ने सोच रखा था. उस ने बताया कि बी.एससी. के साथसाथ सीपीएमटी की तैयारी कर रही है. बड़ी आशा के साथ उस ने बताया कि वह इसी कालेज में आएगी, उस की जूनियर बन कर.
उस के बाद 2 वर्षों तक साखी को सीपीएमटी के परिणाम के समय इंतजार रहा कि शायद सांची के बारे में कोई अच्छी खबर मिले. लेकिन ऐसी कोई खबर न मिलने पर अपनी ओर से सीधे फोन कर के उस की असफलता का पता लगाना, उसे व्यावहारिक नहीं लगा. कुछ वर्ष बीतने के बाद उसे यहांवहां से पता चला था कि सांची एम.एससी. करने के बाद सिविल सर्विसेज के लिए कोशिश कर रही है. साखी फाइनल की लिखित परीक्षा से मुक्त हो कर वाइवा के तनावों से घिरी थी. पढ़ने का मन बना रही थी कि होस्टल के चौकीदार ने उस के नाम की पुकार दी. नीचे उतरी तो देखा कि सांची थी. उन्मुक्त भाव से दोनों एकदूसरे से लिपट गईं. उस का बैग लेते हुए साखी ने शिकायत की, ‘‘कोई खबर तो दी होती, इस तरह अचानक?’’
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‘‘एक सैमिनार में आई थी. वहां इतना व्यस्त हो गई कि सूचना नहीं दे पाई. फिर सोचा कि चलो आज अपनी पुरानी सखी को सरप्राइज देते हैं. आज रात रुकूंगी तुम्हारे साथ अगर तुम्हें कोई असुविधा न हो तो.’’
‘‘अरे, बिलकुल नहीं,’’ कहते हुए साखी सांची का हाथ पकड़ सीढि़यों की ओर बढ़ने लगी. कमरे में पहुंच कर एक गिलास पानी देते हुए वह सांची से बोली, ‘‘तुम फ्रैश हो लो, मैं मैस से टिफिन मंगवाने का प्रबंध करती हूं. आज यहीं रूम में खाएंगे और खूब बातें करेंगे. मेरा तो पढ़ाई से जी ऊब गया है.’’
खाना खा कर वे खुली हवा में होस्टल की छत पर आ गईं. चांदनी रात थी. मुंडेर पर कोने में टिकते हुए सांची ने छेड़ा, ‘‘ऐ, शादी के बारे में क्या विचार है?’’
‘‘शादी? किस की?’’
‘‘तुम्हारी और किस की?’’
‘‘अरे मम्मीपापा तो पूरी कोशिश में लगे हैं 2-3 साल से. न्यूजपेपर में उन्होंने एड भी दिया, लेकिन अभी तक मेरे योग्य मिला ही नहीं,’’ हंसते हुए साखी ने कहा.
‘‘ये तो कोई नई बात नहीं. मांबाप तो भरपूर कोशिश करते ही हैं इस के लिए. मेरा मतलब है कि तुम ने क्या किया? कोई भाया यहां कालेज में या बाहर?’’
‘‘अरे, यहां कोई कमी है क्या? कितने पीछे लगे रहते हैं. कुछ बैच मेट्स हैं तो कुछ सीनियर्स. कुछ मरीज हैं तो कुछ मरीजों के तीमारदार. एकाध सर भी हैं. बहुत लोग हैं यहां मुहब्बत लुटाने वाले. कितने गिनाऊं तुझे कोई लिस्ट बनानी है क्या?’’
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