लखनऊ छोड़े मुझे 20 साल हो गए. छोड़ना तो नहीं चाहती थी पर जब पराएपन की बू आने लगे तो रहना संभव नहीं होता. जबतक मेरी जेठानी का रवैया हमारे प्रति आत्मिक था, सब ठीक चलता रहा पर जैसे ही उन की सोच में दुराग्रह आया, मैं ने ही अलग रहना मुनासिब समझा.
आज वर्षों बाद जेठानी का खत आया. खत बेहद मार्मिक था. वे मेरे बेटे प्रखर को देखना चाहती थीं. 60 साल की जेठानी के प्रति अब मेरे मन में कोई मनमुटाव नहीं रहा. मनमुटाव पहले भी नहीं था, पर जब स्वार्थ बीच में आ जाए तो मनमुटाव आना स्वाभाविक था.
शादी के बाद जब ससुराल में मेरा पहला कदम पड़ा तब मेरी जेठानी खुश हो कर बोलीं, ‘‘चलो, एक से भले दो. वरना अकेला घर काटने को दौड़ता था.’’
वे निसंतान थीं. तब भी उन का इलाज चल रहा था पर सफलता कोसों दूर थी. प्रखर हुआ तो मुझ से ज्यादा खुशी उन्हें हुई. हालांकि दिल में अपनी औलाद न होने की कसक थी, जिसे उन्होंने जाहिर नहीं होने दिया. बच्चों की किलकारियों से भला कौन वंचित रहना चाहता है. प्रखर ने घर की मनहूसियत को तोड़ा.
जेठानी ने मुझ से कभी परायापन नहीं रखा. वे भरसक मेरी सहायता करतीं. मेरे पति की आय कम थी. इसलिए वक्तजरूरत रुपएपैसों से मदद करने में भी वे पीछे नहीं हटतीं. प्रखर के दूध का खर्च वही देती थीं. कपड़े आदि भी वही खरीदतीं. मैं ने भी उन्हें कभी शिकायत का मौका नहीं दिया. प्रखर को वे संभालतीं, तो घर का सारा काम मैं देखती. इस तरह मिलजुल कर हम हंसी- खुशी रह रहे थे.