कभी गौर कीजिए भाषा भी कैसेकैसे नाजुक दौर से गुजरती है. हमारा अनुभव तो यह है कि हमारी बदलतीबिगड़ती सोच भाषा को हमेशा नया रूप देती चलती है. इस विषय को विवाद का बिंदु न बना कर जरा सा चिंतनमंथन करें तो बड़े रोचक अनुभव मिलते हैं. बड़े आनंद का एहसास होता है कि जैसेजैसे हम विकसित हो कर सभ्य बनते जा रहे हैं, भाषा को भी हम उसी रूप में समृद्ध व गतिशील बनाते जा रहे हैं. उस की दिशा चाहे कैसी भी हो, यह महत्त्व की बात नहीं. दैनिक जीवन के अनुभवों पर गौर कीजिए, शायद आप हमारी बात से सहमत हो जाएं.

एक जमाना था जब ‘गुरु’ शब्द आदरसम्मानज्ञान की मिसाल माना जाता था. भाषाई विकास और सूडो इंटलैक्चुअलिज्म के थपेड़ों की मार सहसह कर यह शब्द अब क्या रूपअर्थ अख्तियार कर बैठा है. किसी शख्स की शातिरबाजी, या नकारात्मक पहुंच को जताना हो तो कितने धड़ल्ले से इस शब्द का प्रयोग किया जाता है. ‘बड़े गुरु हैं जनाब,’ ऐसा जुमला सुन कर कैसा महसूस होता है, आप अंदाज लगा सकते हैं. मैं पेशे से शिक्षक हूं. इसलिए ‘गुरु’ संबोधन के सकारात्मक और नकारात्मक दोनों रूपों से रोजाना दोचार होता रहता हूं. परंतु हमारी बात है सोलह आने सच.

‘दादा’ शब्द हमारे पारिवारिक रिश्तों, स्नेह संबंधों में दादा या बड़े भाई के रूप में प्रयोग किया जाता है. आज का ‘दादा’ अपने मूल अर्थ से हट कर ‘बाहुबली’ का पर्याय बन गया है. इसी तरह ‘भाई’ शब्द का भी यही हाल है. युग में स्नेह संबंधों की जगह इस शब्द ने भी प्रोफैशनल क्रिमिनल या अंडरवर्ल्ड सरगना का रूप धारण कर लिया है. मायानगरी मुंबई में तो ‘भाई’ लोगों की जमात का रुतबारसूख अच्छेअच्छों की बोलती बंद कर देता है. जो लोग ‘भाई’ लोगों से पीडि़त हैं, जरा उन के दिल से पूछिए कि यह शब्द कैसा अनुभव देता है उन्हें.

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