‘‘सुनते हो जी,’’ दीबा ने धीरे से उस के हाथों को छूते हुए पुकारा.

‘‘क्या है,’’ वह इस कदर थक चुका था कि उसे दीबा का उस समय इतने प्रेम से आवाज देना और स्पर्श करना भी बुरा लगा.

उस का मन चाह रहा था कि वह बस यों ही आंखें बंद किए पलंग पर लोटपोट करता रहे और अपने शरीर की थकान दूर करता रहे.

उस दिन स्थानीय रेलगाड़ी में कुछ अधिक ही भीड़ थी और उसे साइन स्टेशन तक खड़ेखड़े आना पड़ा था और वह भी इस बुरी हालत में कि शरीर को धक्के लगते रहे और लगने वाले हर धक्के के साथ उसे अनुभव होता था, जैसे उस के शरीर की हड्डियां भी पिस रही हैं.

उस के बाद पैदल सफर, दफ्तर के काम की थकान, इन सारी बातों से उस का बात करने तक का मन नहीं हो रहा था.

बड़ी मुश्किल से उस ने कपड़े बदल कर मुंह पर पानी के छींटे मार कर स्वयं को तरोताजा करने का प्रयत्न किया था. इस बीच दीबा चाय ले आई थी. उस ने चाय कब और किस तरह पी थी, स्वयं उसे भी याद नहीं था.

पलंग पर लेटते समय वह सोच रहा था कि यदि नींद लग गई तो वह रात का भोजन भी नहीं करेगा और सवेरे तक सोता रहेगा.

‘‘दोपहर को पड़ोस में चाकू चल गया,’’ दीबा की आवाज कांप रही थी.

‘‘क्या?’’ उसे लगा, केवल एक क्षण में ही उस की सारी थकान जैसे कहीं लोप हो गई और उस का स्थान भय ने ले लिया है. उसे अपने हृदय की धड़कनें बढ़ती अनुभव हुईं, ‘‘कैसे?’’

‘‘वह अब्बास भाई हैं न…उन का कोई मित्र था. कभीकभी उन के घर आता था. आज शायद शराब पी कर आया था और उस ने अब्बास भाई की पत्नी पर हाथ डालने का प्रयत्न किया. पत्नी सहायता के लिए चीखी…उसी समय अब्बास भाई भी आ गए. उन्होंने चाकू निकाल कर उसे घोंप दिया…उस के पेट से निकलने वाला वह खून का फुहारा…मैं वह दृश्य कभी नहीं भूल सकती,’’ दीबा का चेहरा भय से पीला हो गया था.

‘‘फिर?’’

‘‘किसी ने पुलिस को सूचना दी. पुलिस आ कर उस घायल को उठा कर ले गई. पता नहीं, वह जिंदा भी है या नहीं. अब्बास भाई फरार हैं. पुलिस उन्हें ढूंढ़ रही है. पुलिस वाले पड़ोसियों से भी पूछने लगे कि सबकुछ कैसे हुआ. मुझ से भी पूछा… परंतु मैं ने साफ कह दिया कि मैं उस समय सोई हुई थी.’’

दीबा की सांसें तेजी से चल रही थीं. उस के चेहरे का रंग पीला पड़ गया था, जैसे वह दृश्य अब भी उस की आंखों के सामने नाच रहा हो. स्वयं उस के माथे पर भी पसीने की बूंदें उभर आई थीं. उस ने जल्दी से उन्हें पोंछा कि कहीं दीबा उस की स्थिति से इस बात का अनुमान न लगा ले कि वह इस बात को सुन कर भयभीत हो उठा है. वह यही कहेगी, ‘आप सुन कर इतने घबरा गए हैं तो सोचिए, मेरे दिल पर क्या गुजर रही होगी. मैं ने तो वह दृश्य अपनी आंखों से देखा है.’

‘‘पड़ोसी कह रहे थे,’’ दीबा आगे बताने लगी, ‘‘अब्बास भाई ने जो किया, अच्छा ही किया था. वह आदमी इसी सजा का हकदार था. शराब पी कर अकसर वह लोगों के घरों में घुस जाता था और घर की औरतों से छेड़खानी करता था. अब्बास भाई का तो वह दोस्त था, परंतु उस ने उन की पत्नी के साथ भी वही व्यवहार किया…’’ उस ने दीबा का अंतिम वाक्य पूरी तरह नहीं सुना क्योंकि उस के मस्तिष्क में एक विचार बिजली की तरह कौंधा था. ‘अब्बास भाई के पड़ोस में ही उस का घर था. दीबा घर में अकेली थी… अगर वह आदमी…’

‘‘आप कहीं और खोली नहीं ले सकते क्या?’’ दीबा की सिसकियों ने उस के विचारों की शृंखला भंग कर दी. वह उस के सीने पर अपना सिर रख कर सिसक रही थी.

‘‘आप सुबह दफ्तर चले जाते हैं और शाम को आते हैं. मुझे दिन भर अकेले रहना पड़ता है. अकेले घर में मुझे बहुत डर लगता है. दिन भर आसपास लड़ाईझगड़े, मारपीट होती रहती है. कभी चाकू निकलते हैं तो कभी लाठियां. पुलिस छापे मार कर कभी शराब, अफीम बरामद करती है तो कभी तस्करी का सामान. कभी कोई गुंडा किसी औरत को छेड़ता है तो कभी किसी खोली में कोई वेश्या पकड़ी जाती है. हम कब तक इस गंदगी से बचते रहेंगे. कभी न कभी तो हमारे दामन पर इस के छींटे पड़ेंगे ही… और कभी इस गंदगी का एक छींटा भी मेरे दामन पर पड़ गया तो मैं दुनिया को अपना मुंह दिखाने के बजाय मौत को गले लगाना बेहतर समझूंगी,’’ उस के सीने पर सिर रख कर दीबा सिसक रही थी.

उस की नजरें छत पर जमीं थीं. मस्तिष्क कहीं और भटक रहा था, उस का एक हाथ दीबा की पीठ पर जमा था और दूसरा हाथ उस के बालों से खेल रहा था.

दीबा ने जो सवाल उस के सामने रखा था, उस ने उसे इतना विवश कर दिया था कि वह चाह कर भी उस का उत्तर नहीं दे सकता था. न वह दीबा से यह कह सकता था कि ‘ठीक है, हम किसी दूसरे घर का प्रबंध करेंगे और न ही यह कह सकता था कि यहां से कहीं और जाना हमारे लिए संभव नहीं है.

इस बात का पता दीबा को भी था कि कितनी मुश्किल से यह घर मिला था.

शकील का एक जानपहचान वाला था जो पहले यहीं रहता था. उस ने अपने वतन जाने का इरादा किया था. उसे पता था कि शकील मकान के लिए बहुत परेशान है. उस ने पूरी सहानुभूति से उस की सहायता करने की कोशिश की थी.

‘‘यह खोली मैं ने 8 हजार रुपए पगड़ी पर ली थी और 100 रुपए महीना किराया देता हूं. फिलहाल कोई भी मुझे इस के 10 से 15 हजार रुपए दे सकता है, परंतु यदि तुम्हें जरूरत हो तो मैं केवल 8 हजार रुपए ही लूंगा. यदि लेना हो तो मुझे 10-12 दिन में उत्तर दे देना.’’

‘8 हजार रुपए’ मित्र की बात सुन कर शकील सोच में पड़ गया था, ‘मेरे पास इतने रुपए कहां से आएंगे… फिलहाल तो मुश्किल से 2 हजार रुपए होंगे मेरे पास. यदि कमरा लेना तय भी किया तो बाकी 6 हजार रुपए का प्रबंध कहां से होगा.’

उस के बाद 2 दिन की छुट्टी ले कर वह घर गया तो दीबा ने उस से पहला प्रश्न यही किया था, ‘‘क्या कमरे का कोई प्रबंध किया?’’

‘‘देखा तो है, परंतु पगड़ी 8 हजार रुपए है. 10-12 दिन में 6 हजार रुपए का प्रबंध संभव भी नहीं है.’’

उस की बात सुन कर दीबा का चेहरा उतर गया था.

बहुत देर सोचने के बाद दीबा ने उस से कहा था, ‘‘क्यों जी, मुझे जो विवाह में अपने मायके से सोने के बुंदे मिले थे, यदि हम उन्हें बेच दें तो 6 हजार रुपए तो आ ही जाएंगे और इस तरह हमारे लिए कमरे का प्रबंध हो जाएगा.’’

‘‘तुम पागल तो नहीं हो गई हो. कमरा लेने के लिए मैं तुम्हारे बुंदे बेचूं… यह मुझ से नहीं हो सकता. फिर तुम्हारे घर वाले मुझ से या तुम से पूछेंगे कि बुंदों का क्या हुआ तो क्या जवाब दोगी?’’

‘‘वह मुझ पर छोड़ दीजिए, मैं उन्हें समझा दूंगी. यदि उन के कारण हमारी कोई समस्या हल हो सकती है तो हमारे लिए इस से बढ़ कर और क्या बात हो सकती है. देखिए, जो परिस्थितियां हैं, उन को देखते हुए हम कभी मुंबई में अपने लिए किराए के एक कमरे का भी प्रबंध नहीं कर पाएंगे. तो क्या आप सारा जीवन अपने मित्रों के साथ एक कमरे में सामूहिक रूप से रह कर गुजार देंगे? जीवन भर होटलों का बदमजा खाना खा कर जीएंगे? जीवन भर आप अकेले मुंबई में रहेंगे? हमारे जीवन में महीने दो महीने में एकदो दिन के लिए मिलना ही लिखा रहेगा?’’ दीबा ने डबडबाई आंखों से पति की ओर देखा.

दीबा की किसी भी बात का वह उत्तर नहीं दे पाया था. सचमुच जो परिस्थितियां थीं, उन से तो ऐसा लगता था कि उन का जीवन इसी तरह से चलता रहेगा. कभीकभी उसे अम्मी और घर वालों पर बहुत क्रोध आता था.

‘‘मैं बारबार कहता था कि जब तक बंबई में एक कमरे का प्रबंध न कर लूं, विवाह के बारे में सोच भी नहीं सकता, परंतु उन्हें तो मेरे विवाह का बड़ा अरमान था. इस विवाह से उन्हें क्या मिला? उन का केवल एक अरमान पूरा हुआ, परंतु मेरे लिए तो जीवन भर का रोग बन गया.’’

वह डिगरी ले कर बंबई आया था. उस समय भी बंबई में नौकरी मिलना इतना आसान नहीं था. परंतु उसे अपने ही शहर के कुछ मित्र मिल गए, उन्हीं ने उस के लिए प्रयत्न और मार्गदर्शन किया, कुछ उस की योग्यताएं भी काम आईं. उसे एक निजी कंपनी में नौकरी मिल गई. वेतन कम था, परंतु आगे बढ़ने की आशा थी और काम उस की रुचि का था.

उस के बाद उस का जीवन उसी तरह गुजरने लगा, जिस तरह बंबई का हर व्यक्ति जीता है. उस के मित्रों ने कुर्ला में एक छोटा सा कमरा ले रखा था. उस छोटे से कमरे में वे 5 मित्र मिल कर रहते थे. वह छठा उन में शामिल हुआ था.

कमरा थोड़ी देर आराम करने और सोने के ही काम आता था क्योंकि सभी सवेरे से ही अपनेअपने काम पर निकल जाते थे और रात को ही वापस आते थे.

सभी होटल के खाने पर दिन गुजारते थे. कभीकभी मन में आ गया तो छुट्टी के किसी दिन हाथ से खाना पका कर उस का आनंद ले लिया. बहुत कंजूसी करने के बाद वह घर केवल 200 या 300 रुपए भेज पाता था.

जब भी वह घर जाता, घर वाले उस पर विवाह के लिए दबाव डालते. उन के इस दबाव से वह झल्ला उठता था, ‘‘यह सच है कि मेरे विवाह की उम्र हो गई है और आप लोगों को मेरे विवाह का भी बहुत अरमान है. मैं नौकरी भी करने लग गया हूं, परंतु मैं विवाह कर के क्या करूंगा. अभी बंबई में मेरे पास सिर छिपाने का ठिकाना नहीं है. विवाह के बाद पत्नी को कहां रखूंगा? फिर बंबई में इतनी आसानी से मकान नहीं मिलता है, उस पर बंबई के खर्चे इतने अधिक हैं कि विवाह के बाद मुझे जो वेतन मिलता है, उस में मेरा और मेरी पत्नी का गुजारा मुश्किल से होगा. मैं आप लोगों को एक पैसा भी नहीं भेज पाऊंगा.’’

‘‘हमें तुम एक पैसा भी न भेजो तो चलेगा, परंतु तुम विवाह कर लो. दीबा बहुत अच्छी लड़की है. अगर वह हाथ से निकल गई तो फिर ऐसी लड़की मुश्किल से मिलेगी. तुम विवाह तो कर लो…जब तक तुम किसी कमरे का प्रबंध नहीं कर लेते दीबा हमारे पास रहेगी. तुम महीने में एकदो दिन के लिए आ कर उस से मिल जाया करना. जैसे ही कमरे का प्रबंध हो जाए उसे अपने साथ ले जाना.’’

घर वालों के बहुत जोर देने पर भी वह केवल इसलिए विवाह के लिए राजी हुआ था कि दीबा सचमुच बहुत अच्छी लड़की थी और वह उसे पसंद थी. जिस तरह की जीवन संगिनी की वह कल्पना करता था, वह बिलकुल वैसी ही थी.

विवाह के बाद वह कुछ दिनों तक दीबा के साथ रहा, फिर बंबई चला आया. बंबई में वही बंधीटिकी दिनचर्या के सहारे जिंदगी गुजरने लगी, लेकिन उस में एक नयापन शामिल हो गया था और वह था, दीबा की यादें और उस के सहयोग का एहसास.

वह जब भी घर जाता, दीबा को अपने समीप पा कर स्वयं को अत्यंत सुखी अनुभव करता. दीबा भी खुशी से फूली नहीं समाती. घर का प्रत्येक सदस्य दीबा की प्रशंसा करता.

कुछ दिन हंसीखुशी से गुजरते, लेकिन फिर वही वियोग, फिर वही उदासी दोनों के जीवन में आ जाती.

दोनों की मनोदशा घर वाले भी समझते थे. इसलिए वे भी दबे स्वर में उस से कहते रहते थे, ‘‘कोई कमरा तलाश करो और दीबा को ले जाओ. तुम कब तक वहां अकेले रहोगे?’’

वह बंबई आने के बाद पूरे उत्साह से कमरा तलाश करने भी लगता, परंतु जब 20-25 हजार पगड़ी सुनता तो उस का सारा उत्साह ठंडा पड़ जाता. वह सोचता, कमरा किराए पर लेने के लिए वह इतनी रकम कहां से लाएगा? मुश्किल से वह महीने में 300-400 रुपए बचा पाता था. इस बीच जितने पैसे जमा किए थे, सब शादी में खर्च हो गए बल्कि अच्छाखासा कर्ज भी हो गया था. वह और घर वाले मिल कर उस कर्ज को अदा कर रहे थे.

परंतु दीबा के अनुरोध और फिर जिद के सामने उसे हथियार डालने ही पड़े. बुंदे बेचने के बाद जो पैसे आए और उन के पास जो पैसे जमा थे, उन से उन्होंने वह कमरा किराए पर ले लिया.

पहलेपहल कुछ दिन हंसीखुशी से गुजरे. उन्हें इस बात का एहसास भी नहीं हुआ कि वे धारावी की झोंपड़पट्टी के एक कमरे में रहते हैं. उन्हें तो ऐसा अनुभव होता था, जैसे वे किसी होटल के कमरे में रहते हैं.

परंतु धीरेधीरे वास्तविकता प्रकट होने लगी. आसपास का वातावरण, अच्छेबुरे लोग, चारों ओर फैला शराब, अफीम, जुए, तस्करी और वेश्याओं का कारोबार, गुंडे, उन के आपसी झगड़े, बातबात पर चाकूछुरी और लाठियों का निकलना, गोलियों का चलना, खून बहना, पुलिस के छापे, दंगेफसाद, पकड़धकड़ आदि देख कर वे दोनों अत्यंत भयभीत हो गए थे. तब उन्हें महसूस हुआ कि वे एक दलदल पर खड़े हैं और कभी भी, किसी भी क्षण उस में धंस सकते हैं. वह जब भी दफ्तर से आता, दीबा उसे एक नई कहानी सुनाती, जिसे सुन कर वह आतंकित हो उठता था.

कभी मन में आता था कि वह दीबा से कह दे कि वह वापस घर चली जाए क्योंकि उस का यहां रहना खतरे से खाली नहीं है. परंतु दीबा के बिना न उस का मन लगता था और न ही उस के बिना दीबा का.

उस रात वह एक क्षण भी चैन से सो नहीं सका. बारबार उस के मस्तिष्क में एक ही विचार आता था कि उसे यह जगह छोड़ देनी चाहिए तथा कहीं और कमरा लेना चाहिए.

परंतु उसे कमरा कहां मिलेगा? कमरे के लिए पगड़ी के रूप में पैसा कहां से आएगा? क्या दूसरी जगह इस से अच्छा वातावरण होगा?

उस दिन दफ्तर में भी उस का मन नहीं लग रहा था. उसे खोयाखोया देख कर उस का मित्र आदिल पूछ ही बैठा, ‘‘क्या बात है शकील, बहुत परेशान हो?’’

‘‘कोई खास बात नहीं है.’’

‘‘कुछ तो है, जिस की परदादारी है,’’ उसे छेड़ते हुए जब आदिल ने उस पर जोर दिया तो उस ने उसे सारी कहानी कह सुनाई.

उस की कहानी सुन कर आदिल ने एक ठंडी सांस ली और बोला, ‘‘यह सच है कि बंबई में छत का साया मिलना बहुत मुश्किल है. यहां लोगों को रोजीरोटी तो मिल जाती है, परंतु सिर छिपाने के लिए छत नहीं मिल पाती. फिर तुम ने छत ढूंढ़ी भी तो धारावी जैसी खतरनाक जगह पर, जहां कोई शरीफ आदमी रह ही नहीं सकता.

‘‘इस से तो अच्छा था, तुम बंबई से 60-70 किलोमीटर दूर कमरा लेते. वहां तुम्हें आसानी से कमरा भी मिल जाता और इन बातों का सामना भी नहीं करना पड़ता. हां, आनेजाने की तकलीफ अवश्य होती.’’

‘‘मैं हर तरह की तकलीफ सहने को तैयार हूं. परंतु मुझे उस वातावरण से मुक्ति चाहिए और सिर छिपाने के लिए छत भी.’’

‘‘यदि तुम आनेजाने की हर तरह की तकलीफ सहन करने को तैयार हो तो मैं तुम्हें परामर्श दूंगा कि तुम मुंब्रा में कमरा ले लो. मेरे एक मित्र का एक कमरा खाली है. मैं समझता हूं, धारावी का कमरा बेचने से जितने पैसे आएंगे, उन में थोड़े से और पैसे डालने के बाद तुम वह कमरा आसानी से किराए पर ले सकोगे. कष्ट यही रहेगा कि तुम्हें दफ्तर जाने के लिए 2 घंटा पहले घर से निकलना पड़ेगा और 2 घंटा बाद घर पहुंच सकोगे,’’ आदिल ने समझाते हुए कहा.

‘‘मुझे यह स्वीकार है. मैं एक ऐसी छत चाहता हूं जिस के नीचे मैं और मेरी पत्नी सुरक्षित रह सकें. ऐसी छत से क्या लाभ जो आदमी को सुरक्षा भी नहीं दे सके. यदि थोड़े से कष्ट के बदले में सुरक्षा मिल सकती है तो मैं वह कष्ट झेलने को तैयार हूं.’’

‘‘ठीक है,’’ आदिल बोला, ‘‘मैं अपने मित्र से बात करता हूं. तुम अपना धारावी वाला कमरा छोड़ने की तैयारी करो.’’

शकील का पड़ोसी उस कमरे को 12 हजार में लेने को तैयार था. उन्होंने वह कमरा उसे दे दिया. आदिल के दोस्त ने अपने कमरे की कीमत 15 हजार लगाई थी. कमरा अच्छा था.

2 हजार रुपया 2 मास बाद अदा करने की बात पर भी वह राजी हो गया था.

जब वे मुंब्रा के अपने नए घर में पहुंचे तो उन्हें अनुभव हुआ कि अब वे इस घर की छत के नीचे सुरक्षित हैं.

वह नई जगह थी. आसपास क्या हो रहा है, एकदो दिन तक तो पता ही नहीं चल सका. दिन भर दीबा घर का सामान ठीक तरह से लगाने और साफसफाई में लगी रहती.

वह भी दफ्तर से आ कर उस का हाथ बंटाता. इसलिए आसपास के लोगों और वहां के वातावरण को जानने का अवसर ही नहीं मिल सका. वैसे भी बंबई में बरसों पड़ोस में रहने के बाद भी लोग एकदूसरे को नहीं जान पाते.

एक दिन वह दफ्तर से आया तो अपने कमरे से कुछ दूरी पर पुलिस की भीड़ देख कर चौंक पड़ा.

उस ने जल्दी से कमरे में कदम रखा तो दीबा को अपनी राह देखता पाया. वह भयभीत स्वर में बोली, ‘‘सुनते हो जी, हम फिर बुरी तरह फंस गए हैं. पुलिस ने इस जगह छापा मारा है. इस चाल के एक कमरे में वेश्याओं का अड्डा था और एक कमरे में जुआखाना.

‘‘सिपाही हमारे घर भी आए थे. मुझे धमका रहे थे कि हमारा भी संबंध इन लोगों से है. बड़ी मुश्किल से मैं ने उन्हें विश्वास दिलाया कि हम इस बारे में कुछ नहीं जानते क्योंकि नएनए यहां आए हैं. इस पर वे कहने लगे कि हम ने इस बदनाम जगह कमरा क्यों लिया?’’

‘‘क्या?’’ यह सुनते ही उस के मस्तिष्क को झटका लगा. आंखों के सामने तारे से नाचने लगे और वह अपना सिर पकड़ कर बैठ गया.

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