‘‘तुम तो बस, यही चाहती हो कि हर कोने में तुम्हारा ही अधिकार हो. मायके का यह कमरा हो या ससुराल का घर, हर इंसान बस तुम्हारे ही चाहने पर कुछ चाहे या न चाहे. मीना, यह भी जान ले कि इनसान का हर कर्म, हर व्यवहार एक दिन पलट कर वापस आता है. इतना जहर न बांटो कि हर दिशा से बस जहर ही पलट कर तुम्हारे पास वापस आए.’’
रो पड़ा था मैं यह सोच कर कि कैसे इस पत्थर को समझाऊं. सामने खिड़की के पार मजदूरों के बच्चे खेल रहे थे. हाथ पकड़ कर मैं मीना को खिड़की के पास ले आया और बोला, ‘‘वह देखो, सामने उन बच्चों को. सोच सकती हो वे कैसी गरमी सह रहे हैं? तुम कूलर की ठंडी हवा में चैन से बैठी हो न. जरा सोचो अगर उन्हीं मजदूरों के घर तुम्हारा जन्म होता तो आज यही जलते कंकड़ तुम्हारा बिस्तर होते. तब कहां होते सब नाजनखरे? यह सब चोंचले तभी तक हैं जब तक सब सहते हैं.
‘‘तुम विनय की पत्नी का इतना अपमान करती हो, आज अगर वह तुम्हें कान से पकड़ कर बाहर निकाल दे तब कहां जाएगी तुम्हारी यह जिद, तुम्हारा लड़नाझगड़ना? क्यों मेरे साथसाथ इन सब का भी जीना हराम कर रखा है तुम ने?’’
अपना अनिश्चित भविष्य देख कर मैं घबरा गया था. शायद इसीलिए जैसे गया था वैसे ही लौट आया. किसी को मेरे वहां जाने का पता भी न चला. विनय बारबार फोन कर के ‘क्या हुआ, कैसे हुआ’ पूछता रहा. क्या कहता मैं उस से? कैसे कहता कि मेरी पत्नी उस की पत्नी का अपमान किस सीमा तक करती है.