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वह बेसब्री से शनिवार का इंतजार करती, खुद को सजातीसंवारती. उसे वसंत के साथ अपनी हर मुलाकात पहली मुलाकात ही लगती. देर तक हाथों में हाथ डाले वे इन्हीं लंबी सड़कों पर घूमा करते. गुलमोहर गवाह हैं इन के प्यार के. वह वसंत के सीने पर सिर रखती तो वह उसे अपनी मजबूत बांहों में जकड़ लेता. वह धीरेधीरे पिघलने लगती. उसे लगता उस के बदन की ताप से गुलमोहर भी सुलग उठेंगे. चांदी के दिन थे वे...इतना कीमती और सुनहरा वक्त हमेशा कहां जिंदगी में रहता है.

उस का स्कूल खत्म होने वाला था और वापस अलवर जाने का वक्त आ गया था. मांबाबूजी तो वक्त से पहले ही इस दुनिया से उठ गए थे. इसलिए उस की सारी जिम्मेदारी हेमा दी और रमन जीजाजी के ऊपर आ पड़ी थी. वह लगातार रोए जा रही थी.

‘‘वसंत कुछ करो, मुझे वापस नहीं जाना.’’

‘‘रोओ मत, कुछ करते हैं. ऐसे तो मैं भी तुम्हें नहीं जाने दूंगा...पगली अभी तो वक्त है...कोई न कोई रास्ता जरूर निकलेगा.’’

इंटर के पेपर हो चुके थे. रिजल्ट आने में अभी वक्त था. बिना मार्कशीट कहीं भी दाखिला नहीं होना था. पेपरों के बाद छुट्टियां पड़ रही थीं. वही वापस जाने की मुसीबत. कैसे खुद को जाने से रोके, वह सोच रही थी.

इसी बीच स्कूल की तरफ से 10वीं और 12वीं कक्षा के स्टूडैंट्स के लिए हौबी क्लासेज शुरू होने की खबर आई. स्कूल इस के लिए कुछ ऐक्सट्रा चार्ज कर रहा था. मगर उस की तो मुंहमांगी मुराद पूरी हो गई कि वह अब कोई भी हौबी क्लास जौइन कर लेगी. अलवर वापस जाने से बच जाएगी.

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