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उस ने खुद को उस वक्त बहुत छोटा महसूस किया था. बिखर गई थी वह...प्यार में छला हुआ आदमी कहीं का नहीं रहता...उस के आंसू थमने का नाम ही नहीं ले रहे थे.

हेमा दी और रमन जीजा देर तक उसे समझाते रहे थे कि वसंत किसी भी मामले में खरा नहीं उतरा और अब भी बच्चे की आड़ में वह सिर्फ अपना मतलब ही निकाल रहा है.

मगर वह सोच रही थी कि अब पैसे वसंत के हाथों में नहीं देगी...जो करेगी खुद करेगी...खर्चा कैसे चलेगा...वसंत के पास कुछ था नहीं. बैंक में  8-9 महीने का खर्चा ही बचा था. फिर कैसे होगा सब...एक बार वह बस जिंदगी की गाड़ी को पटरी पर लाना चाहती थी और उस के लिए उसे पैसे की सख्त जरूरत थी.

हेमा दी और रमन जीजा जानते थे कि उस की उम्र और अक्ल इतनी नहीं है कि वसंत की चालाकियों से बच सके. बड़ी मुश्किल से ही नतीजा निकला था. रमन जीजा ने मकान की कीमत लगवा कर उसे उस के हिस्से का पैसा दे दिया था और कुछ पैसा शुभी के नाम फिक्स कर दिया था, जिस का जिक्र उन्होंने वसंत के आगे करने से मना किया था. वे दोनों आखिर तक उसे वसंत की चालों से बचाना चाह रहे थे.

मगर वसंत की चालाकियों के आगे तीनों मुंह ही ताकते रह गए थे. चंद महीने के अंदर ही वसंत ने उस का सारा पैसा साफ कर दिया और फिर वही रवैया शुरू हो गया. अब वसंत पहले से ज्यादा घर से बाहर रहता और महीने 2 महीने में ही घर आता. जिस बच्ची के भविष्य की चिंता दिखा कर उस ने सारा पैसा समेट लिया था अब उस की तरफ देखता भी नहीं था.

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