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पिछला भाग- फैसला दर फैसला: भाग 1

रात का भोजन समाप्त कर हम ऊपर शयनकक्ष में आ गए. बरबस ही मेरा ध्यान स्टूल पर रखे उस के बेटे के फोटो की तरफ चला गया. कुछ पूछने से पहले मैं ने उसे किसी गुरु की तरह समझाना शुरू किया, ‘‘इशि, जिंदगी उतनी सपाट नहीं है. एक बार दुखों की चढ़ाई चढ़नी पड़ती है. उस के बाद सुखों की ढलान आती है… जब तक इन तकलीफों से

गुजरो नहीं, ऐसा लगता ही नहीं कि हम ने

कुछ किया…’’

‘‘शादीब्याह जब मसला बन जाए तो औरतमर्द के रिश्ते की अहमियत ही क्या रह जाती है? रिश्तों की आंच ही न रहे तो सांसों की गरमी एकदूसरे को जला सकती है, उन्हें गरमा नहीं सकती,’’ उस की वाणी अवरुद्ध हो गई थी.

मैं ने उस की दुखती रग को छू दिया, ‘‘कुछ कहेगी नहीं?’’

‘‘हारे हुए जुआरी की तरह सबकुछ लुटा कर खाली हाथ चली आई हूं… पूरे घर को बांधने के प्रयास में जान ही नहीं पाई कि जिस डोर से बांधने का प्रयास किया वह डोर ही कच्ची थी… जितना बांधने का प्रयास करती, उतनी ही डोर टूटती चली जाती… समझ ही नहीं पाई कि मैं गलत कहां थी?

‘‘एक बार फिर सोच लो इशिता,’’

मैं ने कहा.

‘‘आपसी बेलागपन के बावजूद मेरा नारी स्वभाव हमेशा इच्छा करता रहा सिर पर तारों सजी छत की… मेरी छत मेरा वजूद था… बेशक इस के विश्वास और स्नेह का सीमेंट जगहजगह से उखड़ रहा था. फिर भी सिर पर कुछ तो था… पर मेरे न चाहने पर भी मेरी छत मुझ से छीन ली गई… मेरा सिर नंगा हो गया. सब उजड़ गया. नीड़ का तिनकातिनका बिखर गया. प्रेम का पंछी दूर कहीं क्षितिज के पार गुम हो गया,’’ इशिता

की मुसकराहट में छिपी उस के मन की वेदना स्पष्ट थी.

‘‘प्रसन्न से तुम ने प्रेम विवाह किया था…’’ उसे कुरेदने के विचार से मैं ने अगला प्रश्न किया.

‘‘तुम्हारे अमेरिका जाने के बाद मैं बिलकुल अकेली रह गई थी. बूआ भी ज्यादा समय तक नहीं जी पाई थीं. सुबह दफ्तर चली जाती तो पूरा दिन तो बीत जाता था, लेकिन रात की काली छाया अजगर के समान जब विकराल रूप ले कर मेरे सामने खड़ी होती तो मन किसी ऐसे सहारे को ढूंढ़ने के लिए तत्पर हो उठता, जो मेरा अपना हो, नितांत अपना, मेरी प्रेरणा बन कर मुझे संबल प्रदान करे, मेरी भावनाओं, संवेदनाओं को समझे.

‘‘उसी समय एक प्रोजैक्ट के दौरान मेरी भेंट प्रसन्न से हुई. मैं आर्किटैक्ट थी

और वह इंटीरियर डिजाइनर. काम के सिलसिले में अकसर हमारी भेंट होती रहती थी. हम बारबार मिलते. हम ने कब जीवनसाथी बनने की शपथ ले ली, मैं जान ही नहीं पाई.

हम दोनों का प्रेम युवा मन का कोरा भावुक प्रेम नहीं था. उस ने मेरी प्रतिभा, मेरे व्यक्तित्व को स्वीकार किया था… मात्र शारीरिक आकर्षण नहीं था वह. उस के विचारों की परिपक्वता और सहृदयता से मैं आकर्षित हुई थी. लगता था विषय से विषम परिस्थिति से भी वह मुझे उबार लेगा.’’

कुछ देर तक सन्नाटा पसरा रहा. फिर उस के होंठ अनायास बुदबुदा उठे, ‘‘ब्याह हुआ तो कुछ भी स्वप्नवत सा नहीं था… न सखियों की छेड़छाड़ न हासपरिहास ही सुना, न जयमाला डाली गई, न वंदनवार सजे. अग्नि को साक्षी मान कर दृढ़ संकल्प ले कर आई थी कि इस घर के हर सदस्य को अपने व्यवहार से अपना बना लूंगी.

‘‘प्रसन्न के परिवार ने कभी मुझे स्वीकार नहीं किया. वैसे इस में उन का दोष भी नहीं था. हमारे समाज में ब्याह के समय वर पक्ष, जिस मानसम्मान और दानदहेज की उम्मीद करता है वह सब उन्हें नहीं मिला था. तलाकशुदा मातापिता की मैं ऐसी संतान थी, जो बूआ की दया पर पलीबढ़ी थी. कन्या पक्ष का प्रतिनिधित्व करने वाला भी तो कोई नहीं था.

‘‘सुबह से शाम तक काम करती, लेकिन मेरे किसी गुण की तारीफ करना तो दूर उलटा मुझे नीचा दिखाने का हर संभव प्रयास किया जाता. विस्मृत, अचंभित सी मेरी आंखें प्रसन्न का संबल पाने का प्रयास करतीं, लेकिन उस के पास भी मुझे देने के लिए जैसे सबकुछ चुक गया था. मां को प्रसन्न करने के लिए कभी वह मेरी तुलना अपनी बहनों से करता, कभी मां से.

उस तिरस्कारभरे माहौल में अस्तित्व, व्यक्तित्वविहीन जीवन मैं ने कैसे जीया, यह मैं ही जानती हूं. मां के हाथों थमी डोर के इशारों पर नाचने वाला प्रसन्न ऐसा पति था जो संबंधों की गरिमा को ही नहीं पहचान पाया

मां मां होती है, बहन बहन और पत्नी पत्नी. सब के अधिकार क्षेत्र अलगअलग हैं, सीमाएं बंटी हुई हैं, फिर टकराहट कैसी? उस ने अपने घर का वातावरण नारकीय बना दिया इन तुलनाओं से. मां के सामने मेरी आलोचना करता, अवहेलना करता और जब दिन का उजास रात्रि का झीना आवरण ओढ़ लेता तो बंद कमरे में मुझे आलिंगनबद्ध कर के प्रशंसा के पुल बांधता, नए वादे करता.

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‘‘शुरूशुरू में सबकुछ अच्छा लगता रहा, फिर समझ गई कि वह इंसान दोहरी मानसिकता से जूझ रहा है. पत्नी से झूठे वादे करने वाला

वह व्यक्ति बेहद रूढि़वादी था. ब्याह से पूर्व उस के सान्निध्य में लगता था, पुरुष के बिना औरत का व्यक्तित्व अधूरा है, पंगु है और अब वह इंसान छद्म आदर्शों की सलीब पर टंगा एक असहाय व्यक्ति था जो दोहरी मानसिकता से जी रहा था.

‘‘ब्याह की मेहंदी का रंग अभी गहरा लाल ही था कि लोगों के फोन शुरू हो गए. हमें उन अनुबंधों को पूरा करना था, जिन पर ब्याह से पहले हम ने हस्ताक्षर किए थे. ग्रहक्लेश और तनाव से बचने का एकमात्र विकल्प यही था कि हम पूर्णरूप से काम के प्रति समर्पित हो जाएं. मुझे विश्वास था कि हवा के झोंके के समान यह समय भी जल्दी बीत जाएगा. प्रसन्न को भी मैं ने उस दलदल में धंसने के बजाय उस से बाहर निकलने का परामर्श दिया.

‘‘पत्नी थी उस की. शास्त्रों में स्त्री को सहचरी, सहभागी जैसी उपमाएं दी गई हैं. लेकिन प्रसन्न कुछ करना ही नहीं चाहता था. घर में ही रहना चाहता था. कभी चलता भी तो अपना चिड़चिड़ाहट और उग्र स्वभाव से ऐसा विकराल रूप धारण कर लेता कि लोग उस से दूर छिटक जाते.

‘‘हर व्यवसाय इंसान की कर्तव्यपरायणता और मृदु स्वभाव पर निर्भर करता है,

लेकिन प्रसन्न ने तो अपने ग्राहकों से लड़ने की शपथ ले ली थी. उस के व्यक्तित्व को देख

कर पहली बार महसूस हुआ था कि बाहर से सुदृढ़ दिखने वाले इस व्यक्ति की जड़ें कितनी कमजोर हैं.

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