पिछला भाग- फैसला दर फैसला: भाग 3
पिछले वर्ष उस का एक मित्र उसे वहां ले गया था. काफी नाम कमाया उस ने. पैसा भी कमाया... मैं बहुत खुश थी. देर से ही सही मेरे सुख का सूरज उदित तो हुआ. लेकिन वह मेरा भ्रम था... उस ने दूसरा विवाह कर लिया है.’’
‘‘विवाह?’’
‘‘हां दीदी... तुम्हारी तरह फटी आंखों से एकसाथ कई सवाल मेरे चेहरे पर भी उभर आए थे... हमारा तलाक तो हुआ ही नहीं था.
‘‘मन ने धीरे से हिम्मत बंधाई कि उस के पास पैसा है, खरीदे हुए रिश्ते हैं तो क्या हुआ, सच तो सच ही है, हिम्मत मत हार.
‘‘दरवाजा खोलो, दरवाजा खोलो... मुझे न्याय दो, मेरा हक दो... झूठ और फरेब से मेरी झोली में डाला गया तलाक मेरी शादी के जोड़ से भारी कैसे हो सकता है? न जाने किस अंधी उम्मीद में मैं ने अदालत का दरवाजा खटका दिया.
‘‘आज अपने मुकदमे की फाइल उठाए कचहरी के चक्कर काटती मैं खुद एक मुकदमा बन गई हूं. आवाज लगाने वाले अर्दली, नाजिर, मुंशी, जज, वकील, प्यादा, गवाह सभी मेरी जिंदगी के शब्दकोश में छपे नए काले अक्षर हैं. रात के अंधेरे में मैं ने जज की तसवीर को अपनी पलकों से चिपका पाया है. न्यायाधीश बिक गया... बोली लगा दी चौराहे पर मेरी चंद ऊंची पहुंच के अमीर लोगों ने.
‘‘लानत है... यह सोचने भर से मुंह का स्वाद बिगड़ जाता है... भावनाओं के भंवर में डूबतीउतराती कभी सोचती हूं मेरा दोष ही क्या था, जिस की उम्रकैद की सजा मिली मुझे और फांसी पर लटकी मेरी खुशियां?’’ न चाहते हुए भी फाड़ कर फेंक देने का जी चाहता है उन बड़ीबड़ी, लाल, काली किताबों को, जिन में जिंदगी और मौत के अंधे नियम छपे हैं... निर्दोषों को सजा और कुसूरवारों को खुलेआम मौज करने की आजादी देते हैं. जीने के लिए संघर्ष करती औरत का अस्तित्व क्यों सदियों से गुम होता रहा है. समाज की अनचाही चिनी गई बड़ीबड़ी दीवारों के बीच?’’