‘‘मि. सिंह, क्या आप कुछ घंटे के लिए अपनी कार मुझे दे सकते हैं?’’ डेनियल डिपो ने संकोच भरे स्वर में कहा.

लहना सिंह ने हिसाबकिताब के रजिस्टर से अपना सिर उठाया और पढ़ने का चश्मा उतार कर सामने देखा. उस का स्थायी ग्राहक डेनियल डिपो, जो एक नीग्रो था, सामने खड़ा था.

उस के चेहरे पर याचना और संकोच के मिलजुले भाव थे. उस ने एक सस्ता ओवर कोट और हैट पहना हुआ था.

‘‘ओह, मि. डिपो, हाउ आर यू? क्या परेशानी है?’’ लहना सिंह ने आत्मीयता से पूछा.

‘‘आज ट्यूब बंद है. रेललाइन की मरम्मत चल रही है. मुझे परिवार सहित न्यूयार्क के बड़े अस्पताल अपने छोटे भाई को देखने जाना है. यहां का बस अड्डा दूर है. कैब (टैक्सी) का भाड़ा काफी महंगा पड़ता है. अगर आप की कार खाली हो तो...’’ डेनियल के स्वर में संकोच स्पष्ट झलक रहा था.

‘‘हांहां, क्यों नहीं, हमें आज कहीं नहीं जाना है. आप शौक से ले जाइए,’’ कहते हुए लहना सिंह ने कार की चाबी डेनियल को थमा दी.

‘‘थैंक्यू, थैंक्यू, मि. सिंह,’’ आभार व्यक्त करता डेनियल चाबी ले कर ग्रोसरी स्टोर के एक तरफ खड़ी कार की ओर बढ़ चला.

लहना सिंह को न्यूयार्क के एक उपनगर में किराने की बड़ी दुकान, जिसे ग्रोसरी स्टोर कहा जाता था, चलाते हुए 20 वर्ष से भी ज्यादा समय हो चुका था. उस ने शुरुआत छोटी सी दुकान के तौर पर की थी पर धीरेधीरे वह दुकान बड़े ग्रोसरी स्टोर में बदल गई थी.

भारत की तरह अमेरिका के महानगरों, शहरों और कसबों के आसपास निम्नवर्गीय और मध्यमवर्गीय बस्तियां भी बसी हुई थीं. इन बस्तियों में रहने वाले परिवारों की जरूरतें भी आम भारतीय परिवारों जैसी ही थीं.

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