व्यंग्य- रमेश भाटिया

अपने बाथरूम में शीशे के सामने खड़े हो कर फिल्मी धुन गुनगुनाते हुए रामनाथ दाढ़ी बनाने में लगे थे. वाशबेसिन के नल से ब्रश को पानी लगाया और अपने चेहरे पर झाग बनाने लगे. नीचे नल से पानी बह रहा था और ऊपर रामनाथ का हाथ दाढ़ी बनाने के काम में लगा था. रेजर को साफ करने के लिए जैसे ही उसे नल के नीचे ले गए तो पानी बंद हो चुका था.

वह कभी शीशे में अपने चेहरे को तो कभी नीचे नल को देख रहे थे. उन्हें सरकारी व्यवस्था पर इतना ताव आया कि नगरपालिका को ही कोसने लगे, ‘नहानेधोने और पीने के लिए पानी देना तो दूर की बात है, यहां तो मुंह धोने तक के लिए पानी नहीं दे पाती. कैसेकैसे निक्कमे लोगों को नगरपालिका वालों ने भरती कर रखा है. काम कर के कोई राजी नहीं. क्या होगा इस देश का?’

लगभग चिल्लाते हुए अपनी पत्नी को आवाज लगाई, ‘‘सुनती हो, जरा एक गिलास पानी तो देना ताकि मुंह पर लगे झाग को साफ कर लूं.’’

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पत्नी समझती थी कि इस समय कुछ कहूंगी तो घर में बेवजह कलह होगी इसलिए वह चुप रही.

नाश्ता खत्म कर रामनाथ आफिस के लिए निकले. बसस्टाप पर लंबी कतार लगी थी पर बस का दूरदूर तक कहीं अतापता न था. रामनाथ ने अपने आगे खड़े सज्जन से पूछा तो वह बोले, ‘‘अभी 2 मिनट पहले ही बस गई है, अब तो 20 मिनट बाद ही अगली बस आएगी.’’

रामनाथ उचकउचक कर बस के आने की दिशा में देखते और फिर अपनी घड़ी को देखते.

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