लेखक- स्मिता टोके
‘‘कितनी लापरवाही से काम करती हो तुम,’’ रमेश के स्वर की कड़वाहट पिघले सीसे की तरह कानों में उतरती चली गई.
सुबहसुबह काम की हड़बड़ी में रमेश के लिए रखा दूध का गिलास मेज पर लुढ़क गया था. सुमन बेजबान बन कर अपमान के घूंट पीती रही, फिर खुद को संयत कर बोली, ‘‘टिफिन तो रख लो.’’
‘‘भाड़ में जाए तुम्हारा टिफिन. बच्चा रो रहा है और तुम्हें टिफिन की पड़ी है.’’
‘‘ले रही हूं विनय को, लेकिन आप के खानेपीने की चिंता भी तो मुझे ही करनी पडे़गी न.’’
‘‘छोड़ो ये बड़ीबड़ी बातें,’’ रोज की तरह सुमन को शर्मिंदा कर रमेश जूते खटखटाते हुए आफिस निकल गए और सुमन ठगी सी खड़ी रह गई. नन्हे विनय को गोद में उठा कर वह जब तक आंगन में पहुंचती, रमेश गाड़ी स्टार्ट कर फुर्र से निकल गए, न मुड़ कर देखा, न परवा की.
‘‘अच्छा, भूख लगी है राजा बेटे को. हांहां, हम बिट्टू को दूध पिलाएंगे...’’ सुमन के हाथ यंत्रवत बोतल में दूध भरने लगे. मुंह में दूध की बोतल लगते ही विनय का रोना थम गया. लेकिन सुमन तो जैसे झंझावात से घिर गई थी. अंतर्मन में घुमड़ रहे बवंडर पर उस का खुद का भी बस न था.
वह सोच रही थी, आखिर उस की गलती क्या है? क्या समर्पण का यही फल मिलेगा उसे. 22 साल की उम्र में उस ने अपनी भावनाओं का गला घोंट दिया. दीदी के उजड़े परिवार को बसाने की खातिर खुद का बलिदान दे दिया तो क्या गलती हो गई उस से. यह ठीक है कि दीपिका दीदी के असमय बिछोह ने रमेश को अस्तव्यस्त कर दिया है, लेकिन क्या इस के लिए वह सुमन पर जबतब व्यंग्य बाण चलाने का हकदार बन जाते हैं?