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मैं रश्मि को पिछले 7 सालों से जानती हूं. मेरा बेटा मिहिर जब उस की कक्षा में पढ़ता था तब वह स्कूल में नईनई थी. उस का परिवार मुंबई से उसी वर्ष बोरीवली आया था.

हमारी पहचान भी बड़े नाटकीय एवं दिलचस्प अंदाज में हुई थी. मिहिर का पहली यूनिट परीक्षा का परिणाम कुछ संतोषजनक नहीं था. ‘ओपन हाउस’ के दिन की बात है.

जब सभी विद्यार्थियों के अभिभावक जा चुके और मैं भी जाने लगी तो उस ने इशारे से मुझे रुकने के लिए कहा था. उस के अंदाज में अदृश्य सा आदेश पा कर मेरे बढ़ते कदम रुक गए थे.

‘‘आप, मिहिर की मदर हैं?’’ बेहद नाराजगी के स्वर में उस ने मुझ से पूछा था.

‘‘जी हां.’’

‘‘मैं आप को क्या कह कर पुकारूं?’’ उस ने फिर पूछा, ‘‘नाम ले कर या फिर मिहिर की दुश्मन कह कर... वैसे मैं आप का नाम जानती भी तो नहीं...’’

‘‘जी...वर्षा,’’ मैं ने अपना नाम बताया.

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‘‘तो वर्षाजी, आप ही बताइए, क्या आप अपने बच्चे पर हमेशा इसी तरह, गुस्से से बरसती हैं या फिर कभी स्नेह की बारिश भी उस पर करती हैं?’’

‘‘म...मैं समझी नहीं...’’ मैं स्तब्ध सी उस के सुंदर चेहरे को देखती रह गई, ‘‘दरअसल, बात यह है कि...’’ मेरा वाक्य अधूरा रह गया.

‘‘इतना गुस्सा भी किस काम का कि नन्हे बच्चे को यों बेलन से मारना पड़े?’’ रश्मि ने नसीहत देते हुए कहा, ‘‘वर्षाजी, इनसान को हमेशा, हर हाल में अपने पर काबू पाना सीखना चाहिए. गुस्से में तो खासकर. मेरी बात मानिए, जब कभी भी आप को गुस्सा आए तब आप अपनी सूरत आईने में देख लें. इस सूरत में यदि आप अपने गुस्से पर काबू पाने में सफल न हुईं तो फिर बताइएगा.’’

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