ऋतु अपने कालेज के गेट के बाहर निकली तो उस ने देखा बहुत तेज बारिश हो रही है. ‘ओ नो, अब मैं घर कैसे जाऊंगी?’ उस ने परेशान होते हुए अपनेआप से कहा. इतनी तेज बारिश में तो छाता भी नाकामयाब हो जाता है और ऊपर से यह तेज हवा व पानी की बौछारें जो उसे लगातार गीला कर रही थीं. सड़क पर इतने बड़ेबड़े गड्ढे थे कि संभलसंभल कर चलना पड़ रहा था. जरा सा चूके नहीं कि सड़क पर नीचे गिर जाओ. लाख संभालने की कोशिश करने पर भी हवा का आवेग छाते को बारबार उस के हाथों से छुड़ा ले जा रहा था. ऐसे में अगर औटोरिक्शा मिल जाता तो कितना अच्छा होता पर जितने भी औटोरिक्शा दिखे, सब सवारियों से लदे हुए थे.
उस ने एक ठंडी सी आह भरी और पैदल ही रवाना हो गई, उसे लगा जैसे मौसम ने उस के खिलाफ कोई साजिश रची हो. झुंझलाहट से भरी धीरेधीरे वह अपने घर की तरफ बढ़ने लगी कि अचानक किसी ने उस के आगे स्कूटर रोका. उस ने छाता हटा कर देखा तो यह पिनाकी था.
‘‘हैलो ऋतु, इतनी बारिश में कहां जा रही हो?’’
‘‘यार, कालेज से घर जा रही हूं और कहां जाऊंगी.’’
‘‘इस तरह भीगते हुए क्यों जा रही है?’’
‘‘तू खुद भी तो भीग रहा है, देख.’’
‘‘ओके, अब तुम छाते को बंद करो और जल्दी से मेरे स्कूटर पर बैठो, यह बारिश रुकने वाली नहीं, समझी.’’
ऋतु ने छाता बंद किया और किसी यंत्रचालित गुडि़या की तरह चुपचाप उस के स्कूटर पर बैठ गई. आज उसे पिनाकी बहुत भला लग रहा था, जैसे डूबते को कोई तिनका मिल गया हो. हालांकि दोनों भीगते हुए घर पहुंचे पर ऋतु खुश थी. घर पहुंची तो देखा मां ने चाय के साथ गरमागरम पकौड़े बनाए हैं. उन की खुशबू से ही वह खिंचती हुई सीधी रसोई में पहुंच गई और प्लेट में रखे पकौड़ों पर हाथ साफ करने लगी तो मां ने उस का हाथ बीच में ही रोक लिया और बोली, ‘‘न न ऋ तु, ऐसे नहीं, पहले हाथमुंह धो कर आ और अपने कपड़े देख, पूरे गीले हैं, जुकाम हो जाएगा, जा पहले कपड़े बदल ले. पापा और भैया बालकनी में बैठे हैं, तुम भी वहीं आ जाना.’’