बहुत पुरानी बात है. मेरे परदादा जी के वक्त की. दादाजी की जुबानी सुनी थी यह कहानी. हमारे परदादा तब अंग्रेजी फौज में सूबेदार हुआ करते थे. बड़ा रौब-रुतबा था. बड़ी सी कोठी थी. घोड़ागाड़ी, बग्घी, कार, सेवादार सब मुहैय्या था. घर में तमाम नौकर चाकर थे. उन्हीं में एक बूढ़ी नौकरानी थी सुंदरी, जिसकी पूरी उम्र इस परिवार की सेवा में निकली थी. उसकी उम्र कोई सत्तर साल के करीब रही होगी. कमर झुक गई थी, आंखों से कम नजर आता था, दुबला पतला शरीर अब ज्यादा काम नहीं कर पाता था. मगर घर की पुरानी नौकरानी थी, इसलिए उसे हल्का फुल्का काम दिया गया था. वह हर रात कोई आठ बजे परदादा का बिस्तर लगाया करती थी. सूबेदार साहब गर्मी के दिनों में अपने बेडरूम की जगह पीछे के बड़े लॉन में बड़े से तख्त पर बिछे मखमली बिस्तर और गाव-तकिये पर आराम फरमाया करते थे.

उस रात भी बूढ़ी सुंदरी ने सूबेदार साहब का बिस्तर लगाया. मोटे-मोटे गुदगुदे गद्दों पर उसने झक सफेद रेशमी चादर बिछाई. गाव-तकिये सजाए. सिरहाने की छोटी टेबल पर खुश्बूदार फूलों का गुलदस्ता फूलदान में लगाया और फिर एक तरफ खड़ी होकर बिस्तर की छटा को निहारने लगी. अभी तो आठ ही बजे थे. सूबेदार साहब खाना खाकर दस बजे के करीब सोने आते थे. सुंदरी के मन में न जाने क्या आया कि वह धीरे से इस साफ-शफ्फाक बिस्तर पर लेट गई. शायद यह सोच कर कि चंद मिनट इस गुदगुदे बिस्तर का आनंद ले लूं, साहब के आने में तो अभी दो घंटे बाकी हैं.

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