वे रामलीला मैदान के बाहर बड़े से कड़ाहे में कुछ बना रहे थे. उन के आसपास उन की मंडली के फटे, कसे और अधकसे ढोलनगाड़े तल्लीनता से बजा रहे थे. जो बहुमत में हों वे सबकुछ तल्लीनता से ही करते हैं. करना भी चाहिए. कल को सरकार हो या न हो.
सच कहूं तो जब से हाशिए पर गया हूं हलवा खाना तो दूर, हलवे का गीत सुनने तक को कान तरस गए हैं. समझते देर न लगी कि जनाब का हलवा पक रहा है. जनता तक पहुंचे या न पहुंचे, इस से उन्हें क्या सरोकार.
हलवा गातेपकाते उन के बीच जश्न का माहौल था. कोई गैस की आंच कम तेज कर रहा था तो कोई हलवे में डालने को लाए मेवों से एकदूसरे से मुंह छिपा कर अपनीअपनी जेबें भर रहा था.
सरकारी फंड से बन रहे हलवे की बू आते ही मुंह में कुछ पानी भर आया तो वे चिल्लाए, ‘‘रुक...’’
उन के चिल्लाने पर मैं रुका नहीं, ठिठक गया. उन्हें खुशी हुई कि चलो, उन के हलवे की बू से कोई तो रुका.
‘‘क्या है सर?’’ हलवा उन का था, सो अनजान सा बनते हुए पूछा.
‘‘देखो डियर, हम क्या बना रहे हैं?’’ वे मुझे गरदन से पकड़ कर कड़ाहे के पास ले गए. मैं डरा भी कि कहीं कड़ाहे में ही डाल दिया तो? जनता का राज है भाई साहब, ऐसे में जनता के साथ कुछ भी हो सकता है.
‘‘वाह सर, कमाल. यह क्या बन रहा है? वाह, इस से तो स्वर्ग वाली छप्पन भोगों सी खुशबू आ रही है,’’ मैं ने नाक बंद कर सूंघते हुए कहा तो वे आहआह की जगह वाहवाह कर उठे.
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