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 अब तक की कथा :

ईश्वरानंद से मिल कर दिया को अच्छा नहीं लगा था. वह समझ नहीं पा रही थी कि धर्मानंद क्यों ईश्वरानंद का आदेश टाल नहीं पाता. ईश्वरानंद कोई सामूहिक गृहशांति यज्ञ करवा रहे थे. उसे फिर धर्मानंद के साथ उस यज्ञ में शामिल होने का आदेश मिलता है. बिना कोई विरोध किए दिया वहां चली गई. उस पूजापाठ के बनावटी माहौल में दिया का मन घुट रहा था परंतु धर्मानंद ने उसे बताया कि प्रसाद ग्रहण किए बिना वहां से निकलना संभव नहीं. वह दिया की मनोस्थिति समझ रहा था. अब आगे...

दिया बेचैन हुई जा रही थी.  जैसेतैसे कार्यक्रम समाप्ति की घोषणा हुई और भीड़ महाप्रसाद लेने के लिए दूसरी ओर लौन में सजी मेजों की ओर बढ़ने लगी. अचानक एक स्त्री ने आ कर धीरे से धर्मानंद के कान में कुछ कहा.

धर्मानंद अनमने से हो गए, ‘‘देर हो रही है.’’

‘‘लेकिन गुरुजी ने आप को अभी बुलाया है. आप के साथ में कोई दिया है, उसे भी बुलाया है.’’

एक प्रकार से आदेश दे कर वह स्त्री वहां से खिसक गई. दिया ने भी सब बातें सुन ली थीं. कहांकहां फंस जाती है वह. नहीं, उसे नहीं जाना.

‘‘आप हो कर आइए. मैं खाना खाती हूं.’’

‘‘दिया, प्लीज अभी तो चलिए. नहीं तो गड़बड़ हो जाएगी.’’

‘‘मैं कोई बंदी हूं उन की जो उन का और्डर मानना जरूरी है?’’ दिया की आवाज तीखी होने लगी तो धर्मानंद ने उसे समझाने की चेष्टा की.

‘‘मैं जानता हूं तुम उन की बंदी नहीं हो पर तुम नील और उस की मां की कैदी हो. वैसे मैं भी यहां एक तरह से कैद ही हूं. इस समय मैं जैसा कह रहा हूं वैसा करो दिया, प्लीज. हम दोनों ही मिल कर इस समस्या का हल ढूंढ़ेंगे.’’

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