लेखक- नीलम कुलश्रेष्ठ
पैरों की एडि़यां तड़कने लगी हैं, चेहरे की झुर्रियां भी जबतब कसमसाने लगी हैं. कितनी भी कोल्ड क्रीम घिसें, थोड़ी देर में ही जैसे त्वचा तड़कने लगती है. बूढ़े लोगों को देखना और बात है, लेकिन बुढ़ापे को अपने शरीर में महसूस करना और बात. सारी इंद्रियों की शक्ति धीरेधीरे जाने कहां लुप्त होने लगती है. बस, एक ही चीज खत्म नहीं होती, और वह है अंदर की चेतना.
कभीकभी उन्हें झुंझलाहट भी होती है कि सारी शक्ति की तरह यह चेतना भी क्षीण क्यों नहीं हो जाती. यदि ऐसा हो जाए तो कितना अच्छा हो. सुबह उठ कर खाओपीओ, हलकेफुलके काम करो और सो जाओ, अवकाशप्राप्त जिंदगी में और है ही क्या, लेकिन ऐसा होता कहां है.
उन की चेतना के आंचल में ढेरों नश्तर घुसे हुए हैं. वे चाहती हैं कि उन्हें नोच कर बाहर फेंक दें. वे तो जमीन में उगे कैक्टस की मानिंद हैं, ऊपर से कितना भी काटो, फिर उग आएंगे. एक नश्तर तो उन की चेतना में पिरोए दिल की झिल्ली में जैसे बारबार दंश मारता रहता है.
अर्चना दीदी उन से 5 वर्ष छोटी हैं. वे गौरवर्णा, चिकनी त्वचा वाली गोलमटोल महिला हैं. अकसर ऐसी स्त्रियों के गाल उन्नत होते हैं और आंखें छोटीछोटी व कटीली. वे इन का इस्तेमाल करना भी खूब जानती हैं. कहने को तो वे विजयजी की दूर के रिश्ते की बहन हैं, लेकिन जब भी घर में कदम रखेंगी, आंखें नचा कर, तरहतरह के मुंह बना कर इस तरह बात करेंगी कि विजयजी हंसतेहंसते लोटपोट हो जाते हैं.
अपनी ही बात पर मोहित हो वे विजयजी के गले में बांहें डाल देंगी, ‘क्यों भैया, मैं ने ठीक कहा न?’
‘तुम गलत ही कब कहती हो,’ विजयजी उन की ब्लाउज व साड़ी के बीच की खुली कमर को अपनी बांहों में घेर कर उन्हें अपने पास खींच लेंगे.
वे यह नाटक कुछ महीनों से देखती चली आ रही हैं. कुछ बोलने की हिम्मत नहीं होती. घर के किसी कोने में आंसू बहाती रहती हैं या कुढ़ती रहती हैं. इस गले लगाने या लिपटने से आगे भी उन दोनों के बीच कुछ और है, वे टोह नहीं ले पाई हैं. वैसे भी वे हर समय पति के पीछे थोड़े ही लगी रहती हैं.
कभीकभी उन्हें अपनेआप पर बेहद खीझ होती है कि क्यों उन्होंने खुद को दब्बू बना रखा है? शादी से पहले जब वे सोफे पर कूद कर ‘धम’ से बैठती तो मां बड़बड़ाया करती थीं, ‘क्या लड़कों जैसी उछलतीकूदती रहती है, जरा लड़कियों जैसी नजाकत से रहा कर.’
तीज से एक दिन पहले मां एक कटोरी में मेहंदी घोल कर बैठ जातीं. तब वे बहाना बनातीं, ‘मां, कल विज्ञान का टैस्ट है.’
‘तू हर साल बहाना करती है. लड़कियों को पता नहीं क्याक्या शौक होते हैं. नेलपौलिश लगाएंगी, लिपस्टिक लगाएंगी, चूडि़यां पहनेंगी. लेकिन एक तू…नंगे डंडे जैसे हाथ लिए घूमती रहती है. चल, आज तो मेहंदी का शगुन कर ले.’
बेहद खीझते हुए वे मां के सामने बैठ जातीं. मां मेहंदी में नीबू, चीनी, चाय का पानी और न जाने क्याक्या मिला कर उसे तैयार करतीं, पर मेहंदी लगवाते हुए वे शोर मचातीं, ‘मां, जल्दी करो, दुखता है.’
मां तो जैसे तीजत्योहारों पर तानाशाह बन जाती थीं, ‘चुपचाप बैठी रह. कल नहाने से पहले तुझे हरे रंग की चूडि़यां पहननी हैं.’
‘ठीक है, पहन लूंगी, लेकिन यह किस ने कानून बनाया है कि मेहंदी लगा कर उसे धो डालो. मुझे तो मेहंदी का हरा रंग ही लुभावना लगता है.’
‘तू बड़बड़ मत कर, मेहंदी बिगड़ जाएगी.’
मां के तानाशाही लाड़दुलार में जैसे उन का मन भीगभीग जाता था. वे हथियार डाल देती थीं. दूसरे दिन मेहंदी लगे हाथों में हरे रंग की चूडि़यों के साथ हरे रंग की साड़ी जैसेतैसे पिन लगा कर पहन लेतीं, मां निहाल हो उठतीं, ‘कैसी राजकुमारी सी लग रही है, जिस के घर जाएगी, वह धन्य हो जाएगा.’
अपनी शादी की दूसरी रात वे ऐसे ही तो नख से शिख तक तैयार हुई थीं. ननद व जेठानी उन्हें सजा कर स्वयं ठगी सी रह गई थीं.
लेकिन जिन के लिए सज कर वे बैठी थीं, उन्होंने बिना उन का चेहरा देखे रुखाई से कहा था, ‘जा कर कपड़े बदल लीजिए, भारी साड़ी में गरमी लग रही होगी.’
वे अपमान का घूंट पी दूसरे कमरे में जा कर सूती जरी की किनारी वाली साड़ी पहन कर आ गई थीं. उस निर्मोही ने फिर भी उन की तरफ नहीं देखा था. बत्ती बंद करते हुए कहा था, ‘शादी की भागदौड़ में आप भी थक गई होंगी, मैं भी थक गया हूं. मुझे जोरों की नींद आ रही है,’ 2 मिनट में ही करवट बदल कर गहरी नींद में सो गए थे.
विजयजी के साथ उन की शादी के शुरुआती 8 दिन ऐसे ही बीते थे. वे अनब्याही दुलहन की तरह मायके लौट आई थीं. घर में जरा भी एकांत मिलता तो अपनेआप झरझर आंसू बहने लगते. वे नहीं चाह रही थीं कि कोई उन के आंसू देखे, लेकिन मां की छठी इंद्रिय ने बेटी के मन की थाह को सूंघ ही लिया. एक दिन उन्होंने पूछ ही लिया था, ‘तू अकेले में क्यों रोती है?’
पहले तो वे सकुचाईं कि किस तरह कहें कि उन की देह को पति ने स्पर्श तक नहीं किया. फिर संकोच छोड़ कर सारी बात उन्हें बता दी.
‘यदि ऐसा था तो शर्म को त्याग कर उन से इस का कारण पूछना था.’
‘मैं ऐसी बात कैसे पूछ सकती थी?’
‘पतिपत्नी के संबंधों में संकोच कैसा? वैसे हम लोगों ने पैसा तो भरपूर दिया था, लेकिन हो सकता है कि कुछ लेनदेन के बारे में उन की नाराजगी हो?’
‘यदि वे ऐसे लालची हैं तो मैं वहां नहीं रहूंगी.’
‘बेटी, पहले तू पूछ कर तो देख.’
मां के प्रोत्साहन के कारण दूसरी बार ससुराल आ कर वे खुद को आश्वस्त महसूस कर रही थीं. जैसे ही विजयजी ने रात को बत्ती बुझानी चाही, उन्होंने उन का हाथ पकड़ लिया, ‘जरा, आज हम लोग बातचीत कर लें.’
विजयजी ने झुंझला कर हाथ छुड़ाया, ‘क्या बात करनी है? शादी हो गई, तुम इस घर की मालकिन बन गईं और क्या चाहिए?’
‘यदि मैं आप का मन नहीं जीत पाई तो मेरा इस घर में आना बेकार है.’
‘तुम औरतों को चाहिए क्या, कपड़ा और खाना. इन चीजों की तुम्हें जिंदगीभर कमी नहीं होगी,’ फिर उन्होंने स्विच की तरफ हाथ बढ़ाना चाहा. पर उन्होंने उन का हाथ दृढ़ता से पकड़ लिया, ‘नहीं, आज मुझे इतना अधिकार दीजिए कि मैं आप से चंद बातें कर सकूं.’
वे बेमन पलंग पर तकिए के सहारे टिक कर बैठ गए, ‘अब कहो? मैं कहां नाराज हूं,’ वह उन्हें आग्नेय नेत्रों से देख कर बोले.
‘आप की आंखें तो कुछ और ही कह रही हैं,’ वे जैसे हर प्रहार के लिए कलेजा कड़ा कर के बैठी थीं.
‘मेरे चाचा से पूछो कि मेरी नाराजगी का कारण क्या है?’
‘मैं ने सुना तो था कि आप के पिताजी सीधेसादे हैं, शादी की हर बात तय करने के लिए आप के चाचा को आगे कर देते हैं.’
‘हां, उन्हीं चाचा ने रुपयों के लालच में मुझे तुम्हारे पिता के हाथों बेच दिया.’
उन का चेहरा भी तमतमा आया था, ‘मेरे पिता दूल्हा खरीदने नहीं निकले थे. उन्होंने तो अपनी जाति की प्रथा के हिसाब से रुपया दिया था. फिर मेरे पिता व्यापार करते हैं, उन के लिए 2 लाख रुपए अपनी मरजी से देना बड़ी बात नहीं थी.’
‘2 लाख? लेकिन चाचा ने तो हमें डेढ़ लाख रुपए ही दिए थे.’
‘नहीं, सच में मेरे पिता ने 2 लाख रुपए दिए थे.’
‘तो क्या मेरे चाचा झूठ बोलेंगे?’
‘इस बात का फैसला तो बाद में होगा. अब समसया यह है तो हम लोगों को सहज जीवन व्यतीत करना चाहिए.’
‘मैं तुम्हारे लिए बिका हूं, यह बात मुझे सहज नहीं होने दे रही.’
‘मैं आप को सहज कर दूंगी,’ कह कर उन्होंने स्वयं बिजली के बटन पर हाथ रख दिया. ऐसे में उन के कंगन बज उठे थे.
उन दिनों वे मन ही मन कितनी आहत होती थीं. पति तो नवविवाहिता पत्नी का दीवाना हो जाता है, लेकिन उन के हाथ में कुछ उलटा ही रचा था, जैसे कि उन्हें मेहंदी का भी उलटा रंग ही पसंद आता था. वे जबरदस्ती उन्हें अपने आकर्षण में बांध रही थीं. बस, ऐसे ही एक बेटे व बेटी की मां बन गई थीं.
कभी उन्होंने सुना था कि यदि दूल्हे व दुलहन के मन में ब्याह के मंडप के नीचे कोई गांठ हो तो वह जिंदगीभर नहीं खुलती. क्या यह बात सच है? उसी मंडप में चाचाजी ने 50 हजार रुपए अपनी जेब में खिसका लिए थे. यह बात पंडित की बहुत खुशामद करने के बाद पता लगी थी.
उन्होंने लाख कोशिश कर के देख ली थी, पर पति के दिल को वे पूरी तरह जीत नहीं पाई थीं. इसीलिए पास के स्कूल में उन्होंने नौकरी कर ली थी. बच्चों के लिए एक आया रख ली थी. दोपहर के खाने के लिए विजयजी घर पर आते थे, आया उन्हें खाना खिला देती व घर की देखभाल भी कर लेती थी.
तब स्कूल में बराबर की अध्यापिकाओं में उन का मन रम गया था. कभी स्कूल से ही पास के बाजार में चाट खाने का कार्यक्रम बन जाता तो कभी फिल्म देखने का. उधर विजयजी ने भी चैन की सांस ली थी कि वे उन पर अपनी खीझ नहीं उतारतीं, अपनी सहेलियों में मस्त हैं.
एक दिन एक अध्यापिका के पिता की मृत्यु के कारण स्कूल 11 बजे ही बंद हो गया. सो, वे जल्दी घर आ गईं. 5 मिनट तक वे दरवाजा खटखटाती रहीं, तब कहीं आया ने खोला. वह कुछ हकलाते हुए बोली, ‘बच्चों को स्कूल छोड़ आईर् थी. स…स…साहब जल्दी घर आ गए हैं…’
‘क्यों?’
‘उन को दर्द हो रहा है?’
‘कहां?’
‘कमर में…न…नहीं सिर में…’
उस की हकलाहट पर उन्हें आश्चर्य हुआ. उन्होंने उसे घूर कर देखा था. यह देख उन्हें कुछ ज्यादा ही आश्चर्य हुआ कि यह तो बड़े सलीके से साड़ी बांधा करती है, पर इस समय वह बेतरतीब सी क्यों नजर आ रही है? माला का पेंडेंट सदा बीच में रहता है, वह कंधे पर क्यों पड़ा हुआ है? बाल भी बेतरतीब हो रहे हैं. उन्हें कुछ अजीब सा लगा, लेकिन वे सीधे अंदर घुसती चली गईं. कमरे में देखा, पति कुरसी पर बैठे उलटा अखबार पढ़ रहे हैं. उन्हें हंसी आ गई, ‘क्या सिर में इतना दर्द हो रहा है कि उलटे अक्षर समझ में आ रहे हैं?’
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‘किस के सिर में दर्द हो रहा है?’
‘आप के और किस के?’
‘मेरे तो नहीं हो रहा,’ खिसिया कर उन्होंने उलटा अखबार सीधा कर लिया.
‘कपिला तो ऐसा ही कह रही थी.’
‘पहले सिर में दर्द हो रहा था, लेकिन कपिला ने चाय बना दी. चाय के साथ दवा लेने से आराम है?’
उन्होंने कपड़े बदलने के लिए जैसे ही सोने के कमरे में कदम रखा, बिस्तर की सिलवटें देख कर तो जैसे उन का रक्त ही जम गया. एक झटके में कपिला की बेतरतीब बंधी साड़ी, उस का हकलाना, विजयजी का उलटा अखबार पढ़ना और बिस्तर की सिलवटें जैसे उन्हें सबकुछ समझा गई थीं. वे उसी कमरे में कपड़े बदलते हुए जारजार रो उठी थीं. उन्हें अपनेआप पर ही आश्चर्य हो रहा था कि वे कपिता के बाल पकड़ कर उसे घसीट कर घर से बाहर क्यों नहीं कर देतीं या विजयजी से लड़ कर घर में हंगामा क्यों नहीं खड़ा कर देतीं? लेकिन वे खामोश ही रहीं.
बाद में उन्होंने अचानक स्कूल से कई बार आ कर देखा, लेकिन कभी कुछ सुराग हाथ नहीं लगा.
हां, जब भी पति घर में होते, उन की आंखें हमेशा जिस ढंग से कपिला का पीछा करती रहतीं, इस से उस के प्रति उन का आकर्षण छिपा न रहता. उन दिनों वे समझ गईर् थीं कि जो पुरुष अपने मन की गांठ के कारण अपनी सुसंस्कृत पत्नी को भरपूर प्यार नहीं कर पाते, वे अपने तनमन की प्यास बुझाने के लिए अकसर भटक जाते हैं.
उस दिन को याद कर के जैसे आज भी नुकीला नश्तर उन के दिल में चुभता रहता है. जब वे कभी कपिला को टोकतीं तो वह उत्तर देती, ‘जल्दी क्या है बाईजी, अभी सारा काम हो जाएगा.’
एक बार कपिला ने एक दिन की छुट्टी मांगी, लेकिन 3 दिनों बाद काम पर लौट कर आई. वे तो मौका ही ढूंढ़ रही थीं. जानबूझ कर आगबबूला हो गईं, ‘तुझे पता नहीं है, मैं बाहर काम करती हूं?’
‘मैं ने गीता मेम की बाई को बोला तो था कि मेरे पीछे आप का काम कर ले.’
‘सिर्फ एक दिन आई थी. आज तू अपना हिसाब कर और चलती बन.’
‘पहले साहब से तो पूछ कर देख लो, मुझे निकालना पसंद करेंगे कि नहीं?’ कह कर वह कुटिलता से मुसकराई.
‘साहब कौन होते हैं घर के मामले में दखल देने वाले?’ कहते हुए उन का चेहरा तमतमा गया.
‘लो बोलो, वे तो घर के मालिक हैं…किस औरत को अपने घर में रखना है और किसे नहीं, वे ही तो सोचेंगे. मैं जब आईर् थी तो कैसे उदास रहते थे. अब कैसे खुश रहते हैं. उन की खुशी के वास्ते ही अपने घर में रख लो.’
‘तू बहुत बदतमीज औरत है.’
‘देखो, गाली मत निकालना. गाली देना हम को भी आता है,’ कपिला चिल्लाई.
उन्होंने बिना बोल मेज पर रखे पर्स में से रुपए निकाल कर उस का हिसाब चुकता कर दिया. वह बकती हुई चली गई. लेकिन क्या आज भी उन के जीवन से वह जा पाई है? उन के नारीत्व की खिल्ली उड़ाती उस की कुटिल मुसकान क्या अभी भी उन का पीछा छोड़ पाई है?
अब बुढ़ापे में यह अर्चना आ मरी है. वह अकसर अपने बचपन के किस्से सुनाती है, ‘भाभी, जब हम अपनी मौसी के यहां, यानी कि भैया की चाची के यहां गरमी की छुट्टियों में जाते थे तो जानती हो, तब ये बिलकुल जोकर लगते थे. ये किताब ले कर छत पर पढ़ने चले जाते थे. मैं पीछे से इन्हें धक्का दे कर ‘हो’ कर के डरा देती थी.’
तब हमेशा चुप रहने वाले विजयजी भी चहकते, ‘और जानती हो, इस ने मुझे भी शैतान बना दिया था. एक बार यह कुरसी पर बैठी तकिए का गिलाफ काढ़ रही थी. मैं ने इस की चोटी का रिबन कुरसी से बांध दिया था. जब यह कुरसी से उठी तो धड़ाम से ऐसे गिरी…’ विजयजी ने कुरसी पर से उठ कर गिरने का ऐसा अभिनय किया कि सीधे अर्चना की गोद में जा गिरे और दोनों देर तक खिलखिलाते, हंसते रहे.
वे क्रोध से कसमसा उठीं कि 64 वर्ष की उम्र में इस बुढ़ऊ को क्या हो गया है. फसाद की जड़ यह अर्चना ही है. इस के पति अकसर दौरे पर रहते हैं. बच्चे होस्टल में रह रहे हैं, इसलिए जबतब उन के घर आ टपकती है. बड़े अधिकार से आते ही घोषणा कर देती है, ‘आज तो हम यहीं खाना खाएंगे.’
विजयजी अवकाशप्राप्त हैं. इस उम्र में यदि कोई चुहल करने वाला मिल जाए तो फिर तो चांदी ही चांदी है. पत्नी से वे कभी ठीक से जुड़ नहीं पाए. अर्चना से मिल रहे इस खुलेदिल के प्यारदुलार से जैसे उन के चेहरे पर रंगत आ गई है.
वे मन ही मन कुढ़ती रहती हैं. वैसे पति ऐसा कुछ नहीं करते कि उन से लड़झगड़ सकें. दोनों के रिश्तों के ऊपर भाईबहन का बोर्ड लगा है. वे कहें भी तो क्या? वैसे उन के दिल के दौरे का कारण भी तो अर्चना ही थीं.
उस दिन दोपहर में खाना बन चुका था. खाना लगाने के लिए अर्चना की सहायता लेने वे कमरे में जा रही थीं. अचानक दरवाजे के परदे के पीछे ही वे अर्चना की आवाज सुन कर रुक गईं.
‘छोडि़ए भैया…’
‘तुम मुझे भैया क्यों कहती हो?’ विजयजी का अधीर स्वर सुनाई दिया था.
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‘जब हम युवा थे तो मैं ने आप को भैया कहने से इनकार किया था. खुद आगे बढ़ कर आप का प्यार मांगा था, लेकिन तब आप ने मेरा प्यार ठुकरा दिया था.’
‘हां, वह मेरी कायरता थी. तुम मुझ से उम्र में भी कितनी छोटी थीं. फिर मैं अपने रिश्तों के कारण डर गया था कि घर वाले क्या समझेंगे. बस, उन्हीं कारणों से तुम्हारी मां के सामने शादी का प्रस्ताव नहीं रख सका.’
‘तो अब मेरे पास क्यों आना चाह रहे हैं?’
‘इसलिए कि चाचाजी द्वारा रुपए के लालच में जबरदस्ती मेरे सिर मढ़ दी गई पत्नी के लिए मेरे दिल में कोई रुचि नहीं है.’
यह सुनते ही उन का सिर घूम गया. अपनी उम्र, अपना पूरा जीवन इस घर को दे दिया, फिर भी उम्र के इस मुकाम पर अब यह कह रहे हैं? उन्हें लगा था कि उन की छाती के बाईं ओर एक बवंडर उठ रहा है. फिर उन्हें कुछ याद न रहा कि वे कितनी देर बेहोश रही थीं.
दिल के पहले दौरे से उबरने में उन्हें महीनों लग गए थे. बेटी व बेटे के परिवार उन की देखरेख के लिए आ गए थे. उस समय पति उन के पलंग के आसपास ही रहते थे. उन्हें आश्चर्य होता कि कैसा होता है पतिपत्नी का रिश्ता. आपस में प्यार हो या न हो, एकदूसरे के साथ की आदत तो हो ही जाती है. एक की तकलीफ दूसरे की तकलीफ बन जाती है.
बेटे ने तो बहुत जिद की कि वे दोनों उस के साथ ही चलें, किंतु वे अड़ी रहीं. ‘बेटे, जब हाथपैर थकने लगेंगे, तब तो तुम्हारे पास ही आना है. अभी तुम आजादी से रहो.’
बच्चों के परिवारों के जाते ही फिर अर्चना दीदी का आना आरंभ हो गया था.
कुछ महीनों बाद उन्होंने अपने स्वास्थ्य पर काफी हद तक काबू पा लिया था. उन के मन में क्रोध उभरता रहता था कि उन की अब कितनी जिंदगी बची है, 4-5 या हद से हद 10-12 साल. फिर क्यों वे पति के संबंधों को ले कर कुढ़ती रहें? उन की बरदाश्त करने की सीमा चुक गई थी. वे समझ ही नहीं पा रही थीं कि अर्चना की बच्ची से कैसे पीछा छुड़ाएं. उन की उम्र भी ऐसी थी कि यदि इस बारे में किसी से शिकायत करें तो वह उन की झुर्रियों को देख कर हंस देगा. उन्हें लगता है, अब अपनेआप ही कोई रास्ता खोजना होगा.
एक दिन उन्हें पता लगा कि अर्चना के पति दिवाकर दौरे से लौट आए हैं. उन्होंने अर्चना को फोन किया, ‘आज हम लोग शाम को खाने पर आप के यहां आ रहे हैं.’
उन्होंने अर्चना के घर पहुंच कर अपना लाया स्टील का डब्बा खोला और उस में से एक गुलाबजामुन निकाल कर दिवाकर के सामने खड़ी हो गईं, ‘मुंह खोलिए, मैं ने ये गुलाबजामुन खासतौर से आप के लिए बनाए हैं.’
दिवाकर ने उन के इस अचानक उमड़ रहे दुलार से हैरान हो कर मुंह खोल दिया. तब उन्होंने उन के मुंह में अपने हाथ से गुलाबजामुन डाल दिया, ‘बताइए कैसा लगा?’
‘बहुत ही स्वादिष्ठ.’
जब तक अर्चना रसोई में खाना बनाती रही, वे अपने से छोटे दिवाकर को बातों में उलझाए रहीं. पूर्व मुलाकातों में वे समझ गई थीं कि लंबी यात्राओं ने दिवाकर में किताबें पढ़ने का शौक पैदा कर दिया है…वे खानेपीने के भी बहुत शौकीन हैं.
जब भी दिवाकर शहर में होते, वे पति के संग वहीं चल देतीं. विजयजी अकसर उन के घर चलने से आनाकानी करते, क्योंकि वे अर्चना से खुल कर बातें न कर पाते थे. तब वे उन से कहतीं, ‘देखते नहीं हो, दिवाकर नहीं होते तो अर्चना किस तरह साधिकार हमारे घर आ जाती है. मेरा कितना समय उस की खातिरदारी में निकलता है. क्यों न हम लोग भी उस के घर जाया करें.’
अब मन ही मन कुढ़ने की अर्चना की बारी थी. वह भाभी को दिवाकर से देशविदेश की चर्चा करते देखती, किताबों का आदानप्रदान करते देखती तो हतप्रभ रह जाती. वह इतनी प्रतिभाशाली नहीं थी कि इतनी ऊंचीऊंची बातें कर सके.
दिवाकर तो उन से मिल कर निहाल हो उठते थे, ‘भाभीजी, आप से बातचीत कर के मुझे पहली बार पता लगा है कि महिलाओं का भी मानसिक स्तर ऊंचा हो सकता है,’
जब भी वे शहर में होते तो अर्चना पर जोर डालते कि चलो, आज भाभीजी के यहां चलते हैं.
उन के घर के अंदर आते ही वे घोषणा कर देते, ‘भाभीजी, आज तो हम आप के हाथ का बना खाना खाएंगे. बहुत दिनों से लजीज खाना नहीं खाया है.’
तब अर्चना बुरा मान जाती, ‘तो क्या मैं बुरा खाना बनाती हूं?’
‘खाना तो तुम भी अच्छा बनाती हो, किंतु भाभीजी के हाथ के खाने की बात ही कुछ और है.’
जब वे दोनों किसी बहस में मशगूल होते तो उन की आंखों से छिपा न रहता कि विजयजी व अर्चना के चेहरे पर हवाइयां उड़ रही हैं. उन्हें पति का चेहरा देख कर मन ही मन हंसी आती.
धीरेधीरे अर्चना उन के घर आना कम करती जा रही थी. यदि आती भी तो विजयजी से कुछ दूरी बनाए रखती. उस ने मन ही मन समझ लिया था कि उस के पति भाभीजी से बेहद प्रभावित हैं. वे उम्र में बड़ी हैं तो क्या हुआ, उन का बौद्धिक आकर्षण तो उन्हें बांधे ही रखता है.
एक दिन दिवाकर उन के यहां आ कर खूब हंसे, ‘भाभाजी, जानती हैं, आप की ननद उम्र से पहले ही सठिया गई है. मैं आप से अधिक बातचीत करता हूं तो इन्हें लगता है कि हमारे बीच रोमांस चल रहा है. हो…हो…हो…भाभीजी, मैं तो यहां आना चाहता हूं, लेकिन यह ही मुझे रोकती रहती है.’
‘अर्चना दीदी, आप ने ऐसा सोच भी कैसे लिया, मेरी उम्र भी तो देखी होती. कहीं ऐसा तो नहीं है कि सावन के अंधे को हमेशा हरा ही हरा दिखाई देता है?’
भोले दिवाकर कुछ समझ न पाए, लेकिन विजयजी व अर्चना पर मानो घड़ों पानी पड़ गया.
विजयजी भी उन्हें एक साधारण गृहिणी समझते थे. अब वे भी उन के बौद्धिक ज्ञान से चमत्कृत हैं. उन्होंने एक दिन पूछा, ‘तुम में इतना ज्ञान कहां से आया?’
‘आप ने तो सारा जीवन अपनी नौकरी व अपने में ही गुमसुम रह कर निकाल दिया. पर मैं बच्चों के बड़े
होने पर कैसे जीवन काटती? इन्हीं किताबों की बातों में रुचि ले कर जीवन काटा है.’
‘मैं तुम्हारे साथ रह कर भी तुम्हें समझ नहीं पाया.’
‘तो अब समझ लीजिए,’ इतना कह कर उन्होंने पति के कंधे पर सिर टिका दिया, ‘अभी देर कहां हुई है?’
जब पति ने हंस कर उन के कंधे पर हाथ रख दिया तो उन्हें ऐसा महसूस हुआ, जैसे उन्होंने तमाम नश्तरों को थाम लिया है.