शोभा को आखिरकार ठौर मिल गई. आज उसे शहर के नेताजी के कार्यालय में एक छोटी सी नौकरी मिल गई, वह बहुत खुश थी.
सहेली रश्मि के प्रति वह हृदय से कृतज्ञ थी, मित्रता अगर निभाई तो रश्मि ने. अन्यथा आज के जमाने में कौन किसके साथ आता है. सबके अपने-अपने स्वार्थ. अभी 17 वे वर्ष में ही शोभा ने कदम रखा है, मगर मानो दुनिया देख ली है . पग पग पर आंखों से खा जाने वाले लोग, अपने ही अपनों का खून पीने वाले लोग. ओह... यह दुनिया कितनी सुंदर और कितनी बर्बर है. यह सोचते शोभा की आंखें फटी की फटी रह जाती हैं.
पिता की अचानक मृत्यु के बाद घर परिवार का सारा बोझ उसके नाजुक कंधों पर आ गया था. मां और दो छोटे भाई की देखरेख, पालन पोषण उसी का जिम्मा हो गया था. जिसे उसने सहज ही स्वीकार कर लिया . अभी उसकी पढ़ाई अधूरी थी, बारहवीं कक्षा की परीक्षा दी है. आज के जमाने में 12वीं की शिक्षा का क्या महत्व है, उसे कौन देगा सरकारी नौकरी ? वह एक कपड़े वाले सेठ के यहां एक दिन पहुंची और नौकरी की गुजारिश की. श्रीराम क्लास सेंटर शहर की पुरानी कपड़ों की दुकान है.उसके पिता अक्सर यही से कपड़े क्रय किया करते थे.
शोभा को यही दुकान और उसका मालिक सबसे पहले नौकरी के लिए याद आया. एक दिन अचानक वह दुकान पर पहुंची. शोभा को स्मरण है,जब वह पिता के साथ इस दुकान पर खरीददारी के लिए आती, तो सेठ जी कैसे आत्मीयता से बातचीत करते थे. मानो हम उसके परिवार के सदस्य हैं चाय, पानी, नाश्ता सब कुछ सेठ जी मंगा लेते थे.
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