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छतपर लगे सितारे चमक रहे थे. असली नहीं, बस दिखाने भर को ही थे. जिस वजह से लगाए गए थे वह तो... खैर, जीवन ठहर नहीं जाता कुछ होने न होने से.

बगल में पार्थ शांति से सो रहे थे. उन के दिमाग में कोई परेशान करने वाली बात नहीं थी शायद. मेरी जिंदगी में भी कुछ खास परेशानी नहीं थी. पर बेवजह सोचने की आदत थी मुझे. मेरे लिए रात बिताना बहुत मुश्किल होता था. इस नीरवता में मैं अपने विचारों को कभी रोक नहीं पाती थी. पार्थ तो शायद जानते भी नहीं थे कि मेरी हर रात आंखों में ही गुजरती है.

मैं शादी से पहले भी ऐसी ही थी. हर बात की गहराई में जाने का एक जनून सा रहता था. पर अब तो उस जनून ने एक आदत का रूप ले लिया था. इसीलिए हर कोई मुझ से कम ही बात करना पसंद करता था. पार्थ भी. जाने कब किस बात का क्या मतलब निकाल बैठूं. वैसे, बुरे नहीं थे पार्थ. बस हम दोनों बहुत ही अलग किस्म के इनसान थे. पार्थ को हर काम सलीके से करना पसंद था जबकि मैं हर काम में कुछ न कुछ नया ढूंढ़ने की कोशिश करती.

उस पहली मुलाकात में ही मैं जान गई थी कि हम दोनों में काफी असमानता है.

‘‘तुम्हें नहीं लगता कि हम घर पर मिलते तो ज्यादा अच्छा रहता?’’ पार्थ असहजता से इधरउधर देखते हुए बोले.

‘‘मुझे लगा तुम मुझ से कहीं अकेले मिलना पसंद करोगे. घर पर सब के सामने शायद हिचक होगी तुम्हें,’’ मैं ने बेफिक्री से कहा.

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