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मां की छाती से लगने के बजाय संगीता ने अपनी मां को नाराजगी भरे अंदाज में घूरते हुए पूछा, ‘‘मु  झे यह बताओ कि तुम इन पर गुस्सा हो रही हो या मेरी कमियां मु  झे गिनाए जा रही हो?’’

‘‘मैं तो तुम दोनों के नासम  झी भरे व्यवहार से दुखी हूं. मु  झे तो तेरी घरगृहस्थी टूट कर बिखरती दिखाई दे रही है, मेरी बच्ची. तलाकशुदा औरत की हमारे समाज में बहुत दुर्गति होती...’’

‘‘अब बस करो, मां,’’ संगीता चीख उठी.

मीनाजी के ऊपर उस के चिल्लाने का कोई असर नहीं हुआ. वे नीरज और संगीता दोनों के खिलाफ अपना गुस्सा और नाराजगी जाहिर करती ही जा रही थीं.

‘‘मां, अब मेरी जान बख्श दो. मैं कल सुबह... नहीं आज शाम से ही घूमना और व्यायाम करना शुरू कर दूंगी. मेरी तरफ से तुम्हें अब यह शिकायत नहीं रहेगी,’’ अपनी मां को यों संतुष्ट कर खामोश करने का यही एक रास्ता संगीता की सम  झ में आया था.

‘‘मैं संगीता को धोखा देने की बात सपने में भी कभी नहीं सोचूंगा, सासूमां. आप हमें कुछ वक्त दें और हम दोनों आप को अपने आपसी संबंध हर तरह से बेहतर कर के दिखाएंगे,’’ नीरज ने भी जब यह आश्वासन मीनाजी को दिया तो वे शांत होती नजर आने लगीं.

मीनाजी कुछ देर को आराम करने दूसरे कमरे में चली गईं तो संगीता ने अपने मन की उल  झन नीरज के सामने व्यक्त की, ‘‘मु  झे तो मां का व्यवहार आज बिलकुल सम  झ नहीं आया है. इस रितु का कोई संदेश आज तक मेरी पकड़ में क्यों नहीं आया है?’’

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