भाग-1
कमरे में धीमी रोशनी देख इंदु ने सोचा शायद विनय सो चुके हैं. वह दूध का गिलास लिए कमरे में आई तो देखा विनय आरामकुरसी पर आंखें मूंदे बैठे हुए हैं. उन्हें माथे पर लगातार हथेली मलते देख इंदु ने प्यार से पूछा, ‘‘सिर में दर्द है क्या? लो, दूध पी लो और लेट जाओ, मैं बाम मल देती हूं,’’ और इसी के साथ इंदु ने दूध का गिलास आगे बढ़ाया.
‘‘मेज पर रख दो, थोड़ी देर बाद पी लूंगा,’’ आंखें खोलते हुए विनय ने कहा, ‘‘पुरू, क्या कर रही है...सो गई क्या?’’
‘‘नहीं, लेटी है. नींद तो जैसे उस की आंखों से उड़ ही गई है,’’ पुरू के बारे में बात करते ही इंदु का स्वर भर्रा जाता था, ‘‘क्या सोचा था और क्या हो गया. सच ही है, आदमी के चेहरे पर कुछ नहीं लिखा होता. अब दीनानाथजी और सुभद्रा को देख कर क्या कोई अंदाज लगा सकता है कि अंदर से कितने विद्रूप हैं ये लोग...कितने कू्रर...असुर. कुदरत ने दोनों बेटे ही दिए हैं न. एक बेटी होती तो जानते कि बेटी का दर्द क्या होता है. इन्हें हमारी फूल सी बेटी नहीं बस, पैसा नजर आ रहा था और वही चाहिए था,’’ इंदु सिसक पड़ी.
‘‘अब बस करो, इंदु...क्यों बारबार एक ही बात ले कर बैठ जाती हो,’’ विनय ने चुप कराते हुए कहा.
‘‘तुम कहते हो बस करो...मैं तो सहन कर लूंगी पर जानती हूं कि तुम्हारे जी में जो आग लगी है वह अब कभी ठंडी नहीं पड़ेगी. बचपन से पुरू का पक्ष ले कर बोलते रहे हो...पुरू में तो जैसे तुम्हारे प्राण बसे हैं, क्या मैं यह जानती नहीं हूं? जब से पुरू ससुराल से इस तरह लौटी है, तुम्हारे दिल पर क्या बीत रही है, अच्छी तरह समझ रही हूं मैं. अपने दुखों को अंदर ही अंदर समेट लेने की तुम्हारी पुरानी आदत है.’’
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