अभी शाम के 4 ही बजे थे, लेकिन आसमान में घिर आए गहरे काले बादलों ने कुछ अंधेरा सा कर दिया था. तेज बारिश के साथ जोरों की आंधी भी चल रही थी. सामने के पार्क में पेड़ झूमतेलहराते अपनी प्रसन्नता का इजहार कर रहे थे. रमाकांत का मन हुआ कि कमरे के सामने की बालकनी में कुरसी लगा कर मौसम का आनंद उठाएं, लेकिन फिर उन्हें लगा कि रोहिणी का कमजोर शरीर तेज हवा सहन नहीं कर पाएगा.
उन्होंने रोहिणी की ओर देखा. वह पलंग पर आंखें मूंदे लेटी हुई थी. रमाकांत ने पूछा, ‘‘अदरक वाली चाय बनाऊं, पिओगी?’’
अदरक वाली चाय रोहिणी को बहुत पसंद थी. उस ने धीरे से आंखें खोलीं और मुसकराई, ‘‘मोहन से...कहिए... वह...बना देगा,’’ उखड़ती सांसों से वह बड़ी मुश्किल से इतना कह पाई.
‘‘अरे, मोहन से क्यों कहूं? वह क्या मुझ से ज्यादा अच्छी चाय बनाएगा? तुम्हारे लिए तो चाय मैं ही बनाऊंगा,’’ कह कर रमाकांत किचन में चले गए.
जब वह वापस आए तो टे्र में 2 कप चाय के साथ कुछ बिस्कुट भी रख लाए. उन्होंने सहारा दे कर रोहिणी को उठाया और हाथ में चाय का कप पकड़ा कर बिस्कुट आगे कर दिए.
‘‘नहीं जी...कुछ नहीं खाना,’’ कह कर रोहिणी ने बिस्कुट की प्लेट सरका दी.
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‘‘बिस्कुट चाय में डुबो कर...’’ उन की बात पूरी होने से पहले ही रोहिणी ने सिर हिला कर मना कर दिया.
रोहिणी की हालत देख कर रमाकांत का दिल भर आया. उस का खानापीना लगभग न के बराबर ही हो गया था. आंखों के नीचे गहरे गड्ढे पड़ गए थे. वजन एकदम घट गया था. वह इतनी कमजोर हो गई थी कि देखा नहीं जाता था. स्वयं को अत्यंत विवश महसूस कर रहे थे रमाकांत. कैसी विडंबना थी कि डाक्टर हो कर उन्होंने कितने ही मरीजों को स्वस्थ किया था, किंतु खुद अपनी पत्नी के लिए कुछ नहीं कर सके. बस, धीरेधीरे रोहिणी को मौत की ओर अग्रसर होते देख रहे थे.